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[86] ★ विविधावभूततद्भावग्रहणम् ★ (वा० १) "जो प्रकृति पहले ऐसी नहीं थी, परन्तु बाद में ऐसी हो गई है" ऐसा अभिव्यक्त करने के लिए /-च्चि/ प्रत्यय का प्रयोग होता है ॥ (अर्थात् सूत्रकार ने तो मूल में /-च्चि/ प्रत्यय का 'स्वार्थ' में विधान किया था, परन्तु वार्तिककारने एक विशेष सम्भाषण सन्दर्भ जोड़ दिया कि 'अभूत-तद्भाव' अर्थ में /-च्चि/ होता है ऐसा कहना चाहिए) । यथा - अशुक्ल: शुक्लः संपद्यते, तं करोति इति → शुक्लीकरोति । अकृष्णः कृष्णः संपद्यते, तं करोति इति → कृष्णीकरोति ॥
वार्तिककार ने /-च्चि/ प्रत्यय का यहाँ जो 'अभूततद्भाव' रूप एक विशिष्ट अर्थ प्रदर्शित किया है, वह सम्भाषण-सन्दर्भ में परिणत होकर जो चमत्कृति उत्पन्न करता है, उसके कतिपय उदाहरण देखेंगे ।
स वेलावप्रवलयां परिखीकृतसागराम् ।
अनन्यशासनाम् उर्वी शशाकैकपुरीम् ॥ – रघुवंशम् (१-३०) स श्लोक के 'परिखीकृतसागराम्' शब्द में 'च्चि' का प्रयोग हुआ है । परितः खातं परिखाः दुर्गवेष्टनम् । अपरिखा परिखाः संपद्यमानाः कृताः परिखीकृताः सागरा यस्याः, ताम् उर्वीम् शशाक 120 यहाँ पर 'परिखीकृतसागराम्' शब्द में से "सागराः एव परिखाः" ऐसे अभेदारोप का बोध होता है । अर्थात् जो सागर पहले परिखा नहीं थे (अभूत); उसको बाद में परिखा रूप बनाये गये है (= तद्भाव को प्राप्त करवाये है) उसे 'परिखीकृतसागर' कहते है । अब श्लोक का अर्थ ऐसे होगा :- परिखा रूप बनाये गये सागरवाली पृथिवी का दिलीप राजा ने शासन किया था । कहने का तात्पर्यार्थ यह है कि यहाँ 'सागर' एवं 'परिखा' के बीच में 'एव' कार से अभेदरोप नहीं किया गया है; परन्तु /-च्चि/ प्रत्यय से किया गया है । यहाँ 'परिखा' रूप उपमान के उपर 'सागर' रूप उपमेय का अभेदारोप होने के कारण रूपकालङ्कार की प्रतीति होती है । एक दूसरा उदाहरण देखते है :
अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन ।
यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः ॥ - रघुवंशम् (१-३६) 20. रघुवंशम् (मल्लिनाथटीकया सहितम्), सर्गः १, श्लो०-३० The News Printing
Press, Bombay, 1927, (p. 8).
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