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________________ [71] ६-१-७७ सूत्र से जो यणादेश का विधान किया गया है, वह तो इक् वर्गों का प्रतिनिधि है। अब संयोगान्तस्य लोपः ८-२-२३ से यदि यण का लोप हो जायेगा, तो 'दध्अत्र' में से इष्टार्थ की प्रतीति/प्राप्ति ही नहीं होगी । (२) मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु । २-३-१७ सूत्र से । मन् (दैवादिक) धातु के कर्म, जो प्राणी-भिन्न हो, उसको विकल्प से चतुर्थी विभक्ति का विधान किया गया है। परन्तु कालान्तर में "अप्राणिषु" यह संकोच अपर्याप्त एवं अतिव्यापक लगने से, कात्यायनने ★ नौ-काक-अन्न-शुक-शृगालवर्जेषु इति वाच्यम् * ऐसा वार्तिक प्रस्तुत किया है । ऐसे अनुक्तचिन्ताप्रवर्तक वात्तिक से भाषा में आये हुए ऐतिहासिक परिवर्तन को ही वचनबद्ध करने का प्रयास किया गया है । इस तरह से ४-१-४९ सूत्रस्थ ★ यवनाल्लिप्याम् ★ इत्यादि वार्तिक भी देखे जाने चाहिए ॥ (३) कात्यायन ने कुत्रचित् भाषा में आर्य हुए अर्थसंकोच या अर्थविस्तरण का भी उल्लेख किया है । जैसा कि - स्त्रियाम् ४-१-३ के अधिकार में आये हुए स्त्रीप्रत्यय विधायक सूत्रों के उपर जो वार्तिक प्रस्तुत किये गये हैं उससे यह ज्ञात होता है ॥ (४) कात्यायन ने १-४-२ के सन्दर्भ में जो पूर्वविप्रतिषेध का परिगणन करनेवाले दुरुक्तचिन्ताप्रवर्तक वार्तिक लिखे हैं, उससे शास्त्रीयभूलों का सुधार प्रदर्शित किया गया है ।। अत: कात्यायन के कार्य की समीक्षा करने से पहले यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि कात्यायन ने "तीन प्रकार के वार्तिक" लिखें हैं इतना (ही) कहना पर्याप्त नहीं है । तीन प्रकार के वार्तिकों से जो कुछ कहा गया है, उसकी आधुनिक (भाषाशास्त्रीय एवं भाषावैज्ञानिक) दृष्टि से भी समीक्षा करनी जरूरी है ॥ 0.4 कात्यायन के कार्य की आलोचना : यद्यपि कात्यायन ने पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' को सुदृढ एवं अनवद्य बनाने के लिए ही 'वार्तिक' की रचना की थी । परन्तु परम्परा में कात्यायन के कार्य या अवदान का योग्य मूल्यांकन नहीं हो पाया है। क्योंकि वार्तिक वचन का जो लक्षण दिया गया है, उसमें 'वार्तिक' को पाणिनीय सूत्र के केवल व्याख्यानभूत वचन ही नहीं कहा गया है । (तीन प्रकार के वार्तिकों में से जो केवल उक्तचिन्ता प्रवर्तक वार्तिक है, उसी को देखकर ही हम वार्तिक 9. द्रष्टव्यः - व्याकरणमहाभाष्यम् (प्रथमो भागः) प्रदीपोद्योत सहितम्, प्रका० मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९६७ (पृ. १०५). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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