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________________ [70] वार्त्तिक बनाये हैं । उदाहरण के लिए - (१) येन विधिस्तदन्तस्य । १-१-७२ सूत्र से पाणिनि ने तदन्तविधि का विधान किया है । परन्तु वार्तिककार कहते है कि - समासप्रत्ययविधौ प्रतिषेधः । (वार्त्तिक-३) एवं उगिद्वर्णग्रहणवर्जम् । (वार्त्तिक-४) यदि ऐसे दो वार्त्तिक नहीं स्वीकारते हैं, तो द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः । २-१-२४ सूत्र से कष्टं श्रितः इति 'कष्टश्रितः' जैसा समास तो होगा ही; परन्तु "कष्टं परमश्रितः" इति जैसे विग्रहवाक्य में श्रितान्त (= परमश्रित) शब्द का भी 'कष्टम्' के साथ अनिष्ट समास हो जायेगा । ऐसे अनिष्ट से बचने से लिए, "समासप्रत्ययविधौ प्रतिषेधः ।" वार्तिक बनाना आवश्यक है; अनिवार्य है ॥ (२) इसी तरह से विप्रतिषेधे परं कार्यम् । १-४-२ सूत्र के द्वारा कहा गया है कि विप्रतिषेध के प्रसङ्ग में परसूत्र पूर्वसूत्र का बाध करता है । परन्तु कात्यायन ने सूक्ष्मेक्षिका से कतिपय स्थान ऐसे भी देखे हैं कि जहाँ परसूत्र की अपेक्षा पूर्वसूत्र ही बलवान मानना आवश्यक है। ऐसे स्थानों की गीनती करके वार्तिककारने कहा है कि - गुणवृद्धयौत्त्वतज्वद्भावेभ्यो नुम् पूर्वविप्रतिषेधेन ॥ (७-१-९६ इत्यत्र महाभाष्यम्) । "त्रपुणे - जतुने" जैसे उदाहरणों में घेर्डिति (७-३-१११) सूत्र से गुण की प्राप्ति भी है; और इकोऽचि विभक्तौ (७-१-७३) सूत्र से /-नुम् । आगम की भी प्राप्ति है । पूर्वत्व-परत्व की दृष्टि से ७-३-१११ सूत्रोक्त 'गुण' कार्य पर है । परन्तु यहाँ पर परसूत्रोक्त कार्य करने पर अनिष्ट की आपत्ति है । अतः वार्तिककार, सूत्रकारोक्त (१-४-२) व्यवस्था को बदल कर, नुम् आगम के विषय में पूर्वसूत्र (७-१-७३) ही बलवान मानना आवश्यक बताते है । इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि वार्तिककार कात्यायनने पाणिनि के सूत्रों के उपर त्रिविध (उक्त-अनुक्त-एवं दुरुक्त) चिन्ता प्रवर्तक वार्त्तिक लिखें हैं । ___ इन तीनों प्रकार के वार्तिकों से कात्यायनने जो कार्य किया है उसकी व्याकरणिक दृष्टि से भी समीक्षा करनी चाहिए : (१) कात्यायन ने “संयोगान्तस्य लोपे यणः प्रतिषेधो ( वक्तव्यः)" ऐसा (दुरुक्तचिन्ताप्रवर्तक) वार्तिक लिख कर 'दध्यत्र-मध्यत्र' जैसे उदाहरणों की इष्टसिद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है । यह वार्तिक ध्वनिशास्त्र की पूर्ण अभिज्ञता का द्योतक है। क्योंकि इको यणचि । 8. संयोगान्तस्य लोपः । ८-२-२३ इत्यत्र महाभाष्यम् । Vol. III, BORI, Poona, 1972, p. 401. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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