________________
[68] धातुग्रहणसामर्थ्यादजेव भवति । कुणरवाडवस्त्वाह । नैषा शंकरा । शंगरा एषा । गृणातिः शब्दकर्ता तस्यैष प्रयोगः ॥ इत्यादि ।
परन्तु कात्यायन से भिन्न जो जो वार्तिककारों का नामोल्लेख पतञ्जलि ने किया है वह बहुत गणनापात्र नहीं है । अतः इस व्याख्यान में 'वार्तिककार' के नाम से जो भी चर्चा प्रस्तुत की जायेगी वह कात्यायन को उद्दिष्ट करके ही है - ऐसा मानना चाहिए ॥ 0.3 'वार्तिक' का लक्षण एवं उदाहरण :
जिस तरह से परम्परा में 'स्वल्पाक्षरमसंदिग्धम्' इत्यादि शब्दों से 'सूत्र' का लक्षण प्रस्तुत किया गया है, वैसे ही 'वार्तिक' का भी एक लक्षण दिया गया है :
उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।
तं ग्रन्थं वात्तिकं प्राहुर्वात्तिकज्ञा मनीषिणः ॥ अर्थात् - जिस में उक्त, अनुक्त और दुरुक्त विषयों का चिन्तन (विचार) किया जाता है, उस ग्रन्थ को (या वचन को) वार्तिकज्ञ मनीषीओं वार्तिक कहते हैं || पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन ने जो वार्तिक लिखें हैं, वह भी तीन प्रकार के दिखाई पड़ते है । तीनों प्रकार के वार्तिक के उदाहरण निम्नोक्त हैं :(क) उक्त-चिन्ता प्रवर्तक वार्तिक :
'अष्टाध्यायी' के सूत्रों के प्रयुक्त शब्दावली की यथार्थता उद्घाटित करने के लिए चर्चा के प्रारम्भ में कतिपय आक्षेप दिये जाते है और बाद में उसका समाधान दिया जाता है । ऐसे प्रसङ्ग में जो वार्तिक प्रस्तुत किये जाते है उसे 'उक्त-चिन्ता प्रवर्तक वार्तिक' कहते है । दूसरे शब्दों में कहे तो सूत्रस्थ शब्द, जो (सूत्रकार द्वारा) 'उक्त' है, उसके प्रयोजन की चिन्ता याने विचारणा करने वाले वार्तिक को 'उक्तचिन्ता प्रवर्तक' कहते है । उदाहरण के लिए - (१) यू स्त्र्याख्यौ नदी । १-४-३ सूत्र से 'नदी' संज्ञा का विधान किया गया है । उस सूत्र की पदावली में 'आख्या' शब्द का प्रयोग किया गया है । विचार की पूर्व अवस्था में पूर्वपक्ष यह मान लेता है कि इस शब्द का प्रयोग व्यर्थ है । इस के बिना भी काम चल सकता है। 5. ३-२-१४ इत्यत्र व्याकरणमहाभाष्यम् (Vol. II), BORI, (p. 100) 6. द्रष्टव्यः - पराशर - उपपुराण ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org