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पर पाणिनि के द्वारा " 'च' अव्यय के अर्थों में द्वन्द्व-समास किया जाय" - ऐसा कोई अर्थ का आदेश (= अपूर्वविधान) नहीं किया जा रहा है ।26 संक्षेप में कहे तो पाणिनि अर्थों का आदेश नहीं करते है, परन्तु केवल निर्देश ही करते है । 4.2 अर्थों का 'आदेश' करना असम्भव है :
इस प्रसङ्ग में पतञ्जलिने एक चर्चा यह भी की है कि - व्याकरणतन्त्र में अर्थों का आदेश (अपूर्वविधान) क्यों नहीं किया जाता है ? पतञ्जलि कहते है कि लाघव-सिद्धि के लिए अर्थों का आदेश नहीं किया जाता । जैसा कि - एक शब्द का (अपूर्व = नया) अर्थ बताने के लिए जो दूसरे शब्द का प्रयोग किया जायेगा, तो बाद में वही दूसरे शब्द का क्या अर्थ होगा ? वह बताने के लिए तीसरे शब्द का प्रयोग किया जायेगा ! तीसरे का अर्थ बताने के लिए चौथे शब्द का प्रयोग करना होगा । इस तरह से तो एक बड़ी अनवस्था का निर्माण होगा ! किसी भी शास्त्र में ऐसी अनवस्था सह्य नहीं होती है । 5.0 उपसंहार :
पाणिनीय व्याकरणतन्त्र में 'अर्थ' का स्थान, स्वरूप एवं कार्य विषयक इस विस्तृत चर्चा में हमने चार बिन्दुओं पर विचारणा करके जो निष्कर्ष निकाले है वह निम्नोक्त है :(१) सामान्यतः किसी भी भाषा में 'अर्थ' प्रत्याय्य होता है और ध्वनि, पद एवं वाक्य प्रत्यायक
होते है । अत: किसी भी भाषा के व्याकरण में ध्वनि, पद एवं वाक्य की निश्चित आन्तरिक बुनावट की चर्चा की जाती है । लेकिन यहाँ पर कोई ऐसा समझ ले कि व्याकरण में केवल प्रत्यायक ध्वनि, पद एवं वाक्य का ही विचार किया जाता है; और प्रत्याय्य ऐसा 'अर्थ' व्याकरण की सीमा से बाहर ही रहता है । तो ऐसी मान्यता पाणिनीय व्याकरण के लिए नितान्त असत्य है । क्योंकि पाणिनि का व्याकरण पृथक्करणात्मक नहीं है; वह तो संयोजनात्मक है । अतः पाणिनिने तो 'अर्थ' को आरम्भबिन्दु पर ही (in-put के
रूप में) स्थापित किया है । 26. स्वभावत एतेषां शब्दानामेतेष्वर्थेष्वभिनिविष्टानां निमित्तत्वेनान्वाख्यानं क्रियते । तद्यथा – कूपे
हस्तदक्षिणः पन्थाः, अभ्रे चन्द्रमसं पश्य 'इति स्वभावतस्तस्य तत्रस्थस्य पथश्चन्द्रमसश्च निमित्तत्वेनान्वाख्यानं क्रियते । एवमिहापि चार्थे यः स द्वन्द्वः, अन्यपदार्थे च स बहुव्रीहिरिति । २-१-१ इत्यत्र महाभाष्यम् ॥
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