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एवं (२) नखमुखात् संज्ञायाम् । ४-१-५८ 'नख' ' मुख' शब्द को, स्त्रीलिङ्ग के विषय में डीष् प्रत्यय नहीं लगता है, यदि 'संज्ञा' रूप अर्थ विवक्षित हो । यथा शूर्पणखा । कालमुखा ॥ जहाँ पर वास्तव कथन की इच्छा होगी, वहाँ डीष् प्रत्यय लगेगा । यथा ताम्रनखी कन्या । चन्द्रमुखी पत्नी ।
4.0 पाणिनि अर्थ का 'विधान' करते है कि 'निर्देश' ? :
उपर्युक्त चर्चा से अब यह ज्ञात हो गया है कि पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' के अनेक सूत्रों में पुंसि, स्त्रियाम्, एकवचने, सम्बुद्धौ, वर्तमाने, कर्तरि-कर्मणि, ताच्छील्ये, प्रशंसायाम्, क्षेपेगर्हायाम्, पूजायाम्, संज्ञायाम्, देशे, गोत्रे, क्रियासमभिहारे, प्रहासे, प्रत्यभिवादे इत्यादि वैषयिक सप्तम्यन्त पदों से अनेक प्रकार के (जैसे कि व्याकरणिक अर्थ, भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृति, पुराकथाशास्त्रीय एवं संभाषण सन्दर्भादि रूप विभिन्न प्रकार के) अर्थों का समुल्लेख किया है । इस तरह से उल्लिखित अर्थों को देखकर किसी को प्रश्न हो सकता है कि
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इस शास्त्र में पाणिनि क्या अर्थों का अपूर्व विधान करते है कि अर्थों का केवल निर्देश ही करते है । भाष्यकार पतञ्जलिने भी समर्थः पदविधिः । २-१-१ सूत्र के भाष्य में यह प्रश्न उठाया है कि किं स्वाभाविकं शब्दैरर्थानाम् अभिधानम्, आहोस्विद् वाचनिकम् । "शब्दों से जो अर्थों का अभिधान होता है, वह क्या स्वाभाविक ही है कि वाचनिक है ? ('वाचनिक' अर्थात् पाणिनि के वचन से (= सूत्र से ) आदिष्ट होने के कारण प्राप्त होनेवाला) । कहने का तात्पर्य ऐसा है कि पाणिनि ने अनेकमन्यपदार्थे, चार्थे द्वन्द्वः, अपत्ये, रक्ते, जैसे पदों से क्या अर्थों का अपूर्वविधान किया है, या वह केवल अर्थनिर्देश ही है, ऐसा माना जाय ?
निर्वृते
4.1 अर्थों का केवल 'निर्देश' किया गया है । :
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पतञ्जलिने कहा है कि नहीं किया है । अर्थों का अभिधान तो स्वाभाविक ही २९ इत्यादि सूत्रों से अर्थों का आदेश (अपूर्वविधान) किया गया है
पाणिनि ने अर्थों का अपूर्वविधान होता है । चार्थे द्वन्द्वः । २-२ऐसा जो दिखाई दे रहा
है वह तो केवल निमित्तभूत है; निर्देश मात्र है । व्यवहार दशा में जब कोई कहता है कि
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कूपे हस्तदक्षिणः पन्थाः । " कूप के दक्षिण भाग में रास्ता पड़ता है ।" तो वहाँ पर कोई अपूर्व (= नये) मार्ग का निर्माण नहीं किया जाता है । रास्ता तो पहले से ही, वहाँ था ही । उसी तरह से 'चार्थे द्वन्द्वः ।' इत्यादि सूत्रों से केवल इतना ही कहा जाता है कि 'च' अव्यय के इतरेतरादि अर्थों में जो समास होता है, वह द्वन्द्व समास कहा जाता है । यहाँ
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