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________________ [54] 2.3.2 अर्थ के रूप में सामाजिक परिस्थिति : पाणिनि ने आपने वर्णनात्मक प्रकार के व्याकरण में मनुष्यजीवन को व्यापक रूप से स्थान दिया है । किसी भी भाषाकीय अभिव्यक्ति में मनुष्य का व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन प्रतिबिम्बित होने ही वाला है । जैसे हास-उपहास, स्तुति-निन्दा, शाप-आशीर्वाद, व्यापारक्रीड़ा, जाति-गोत्र, शिक्षण-धर्म, आश्रम-विवाह, स्त्री-वेषभूषा, खानपान-यान आसन, विशेषसंज्ञाइत्यादि । भाषाकीय अभिव्यक्ति में (१) स्थूल द्रव्यादि एवं क्रिया रूप रूढि प्राप्त कोशगत अर्थ; (२) और लिङ्ग, वचन, कालादि रूप व्याकरणिक अर्थ से आगे बढकर, (३) उपर्युक्त सामाजिक सन्दर्भ भी एक अर्थ के रूप में स्थान प्राप्त करते हैं । इनमें से कतिपय के उदाहरण हम यहाँ देखेंगे - - (१) खट्वा क्षेपे । २-१-२६ सूत्र से कहा गया है कि - खट्वाप्रकृतिक द्वितीयान्त शब्द का क्तान्तप्रकृतिक सुबन्त के साथ समास होता है, यदि निन्दा का भाव बताना हो तो । यथा - खट्वारूढो जाल्मः । (यह नित्यसमास होता है। लेकिन जब वास्तव कथन करना हो, तो "अयं पुरुषः खट्वाम् आरूढः ।" ऐसा विगृहीत वाक्य ही प्रयुक्त किया जाता है । यहाँ पर पाणिनि ने खट्वा क्षेपे । २-१-२६ सूत्र में "क्षेपे" जैसा सप्तम्यन्त पद रखकर 'निन्दा' रूप अर्थ, जो समाजजीवन में कभी कभी व्यक्त किया जाता है उसका प्रदर्शन किया है। इसी तरह से, सुः पूजायाम् । १-४-९४ सूत्र से कहा है कि - 'पूजा' अर्थ व्यक्त करने वाले 'सु' शब्द की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है । उदाहरण - सु सिक्तं भवता । सु स्तुतं भवता । "आपने तो बहु अच्छी तरह से सिंचन किया है, अच्छी तरह से स्तुति की है ।" परन्तु यदि आक्षेप करना है तो 'सु' शब्द की उपसर्ग संज्ञा होती है । जिसके परिणाम स्वरूप षत्व विधि होती है । यथा सुषिक्तं किं तवात्र ?! "क्या यह तूने अच्छी तरह से सिंचन किया लगता है ?" याने तूने अच्छी तरह से सिंचन नहीं किया है ॥ पाणिनि अपने अनेक सूत्रों में आक्रोशे, शपथे, क्षेपे, गर्हायाम्, पूजायाम्, प्रशंसायाम् जैसे सप्तम्यन्त पद रखकर मनुष्यों के मन में रहे विभिन्न भावों को भाषाकीय स्तर पर अर्थ के रूप में किस तरह से प्रकट किये जाते है उसका विशद एवं विस्तृत वर्णन करते है । प्रोफे. सरोजा भाटे (पूणे)ने भी अपने Vyanjana as reflected in the formal structure of Language - वाले लेख में लिखा है कि - In his Astadhyayi, he showed in at least two hundred rules that a number of emotive and attitudinal meanings were relevant to the form of language. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002635
Book TitlePaniniya Vyakarana Tantra Artha aur Sambhashana Sandarbha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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