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(ख) नन्दयति या सा - नन्दिनी ।
यहाँ नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्यु-णिन्-यचः । ३-१-१३४ से निन्द् धातु को ल्युट्
→ अन हो कर 'नन्दन' जैसा कृदन्त शब्द बनता है । बाद में स्त्रीप्रत्यय (४१-१५) से ङीप् हो कर 'नन्दिनी' बनता है । तत्पश्चात् - जनकस्य नन्दिनी इति ऐसे विग्रह वाक्य में से 'जनकनन्दिनी ।' षष्ठी तत्पुरुष समास
बनता है। (ग) प्रियं वदति या, सा प्रियंवदा ।।
यहाँ पर, प्रियवशे वदः खच् । ३-२-३८ सूत्रोक्त /-खच्/ प्रत्यय Vवद धातु को लगता है । और अरुषिदजन्तस्य मुम् । ६-३-६७ से ('प्रिय' शब्द को)
मुम् आगम होता है । स्त्रीत्व का टाप् । “प्रियंवदा' यह कृदन्त शब्द है । (घ) स्थण्डिलं (नित्यं) शेते (व्रतपरिपालनाय) । इति स्थण्डिलशायी । (स्थण्डिल + शीङ् ___ + णिनि) यहाँ पर व्रते । ३-२-८० सूत्र से 'व्रत' रूप अर्थ बोधित कराने के
लिए Vशीङ् शयने धातु को णिनि → इन् प्रत्यय लगता है.। यहाँ 'स्थण्डिलशायिन्'
कृदन्त शब्द है । इस तरह प्रत्येक कृदन्त, तद्धितान्त एवं समासादि वृत्तिपद में अन्तःस्तरीय रचना के रूप में एक विग्रह वाक्य होता है । इन सब का कृदन्तादि शब्द में रूपान्तरण हो जाने के बाद वे एक नये वाक्य के कारकों का विशेषण बन कर, पुनः पदत्वसंपादक विधियाँ प्राप्त कर सकते हैं । इस तरह पाणिनीय तन्त्र का प्रवर्तन एवं परिभ्रमण एक घूमते हुए चक्र की तरह दिखाई पड़ता है ॥ 3.0 पाणिनीय व्याकरण-तन्त्र का स्वरूप :
इतना तो निश्चित है ही कि पाणिनि ने अपना 'अष्टाध्यायी' व्याकरण पृथक्करणात्मक शैलीवाला नहीं लिखा है । उसमें तो प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन से शब्दों एवं वाक्यों की निष्पत्ति (विशेष उत्पत्ति = व्युत्पत्ति) की प्रक्रिया प्रदर्शित की है । परन्तु वर्तमान युग में आधुनिक भाषाविज्ञान का उदय होने के बाद पाणिनीय व्याकरण किस स्वरूप का है ? यह अनेक दृष्टिओं से देखा गया है । भारत वर्ष के मनीषीओं ने प्राचीनकाल से ऐसा माना हि की पूर्वमीमांसाशास्त्र 'वाक्यशास्त्र' है और (पाणिनीय) व्याकरणशास्त्र एक 'पदशास्त्र' है । आधुनिक
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