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'आत्मनः पुत्रम् इच्छति ।'
पुत्र + अम् + क्यच्
धातुसंज्ञा
पुत्र + 0. + क्यच्
पुत्र + 0 + य
पुत्री + ० + य
पुत्री (धातु) ।
=
पुत्रीय + लट् पुत्रीय + तिप्
पुत्रीय + शप् + तिप्
पुत्रीय + अ + ति
(पररूप)
पुत्रीयति ॥
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(१)
सुप आत्मनः क्यच् । ३-१-८ से 'क्यच्' का विधान ।
(२) सनाद्यन्ताः धातवः । ३-१-३२ से क्यजन्त अंश की 'धातु' संज्ञा की जाती है ।
(३) सुपो धातुप्रातिपदिकयोः । २-४-७१ से 'धातु' के अवयवभूत 'सुप्' प्रत्यय का लुक् होता है ।
(४) लशक्वतद्धिते । एवं हलन्त्यम् / से क् एवं च् की उत्संज्ञा, लोप ।
(५) क्यचि च । ७४-३३ से 'पुत्र' शब्द के अ कार को ईत्व करने से सनाद्यन्त धातु की सिद्धि हो जाती है ।
(६) वर्तमाने लट् । ३-२-१२३ इत्यादि की प्रवृत्ति होने पर शप्, पररूप वगैरह होने से रूपसिद्धि पूर्ण होती है ।
(२) णिजन्त (प्रेरक) वाक्यरचना : सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्ण- चुरादिभ्यो णिच् । ३-१-२५ सूत्र से पाणिनि ने 'चुरादि (दशम) गण के धातुओं को स्वार्थ में 'णिच्' प्रत्यय होता है' – ऐसा कहा है । परन्तु तत्प्रयोजको हेतुश्च । १-४-५५ सूत्र से कहा है कि कर्ता के प्रयोजक (= प्रेरक) की 'हेतु' संज्ञा (और 'कर्तृ' संज्ञा भी) होती है। जिसके फलस्वरूप- - हेतुमति च । ३-१-२६ सूत्र से, प्रयोजक के प्रेरणा रूप व्यापार को कहने के लिए धातु से 'णिच्' प्रत्यय का विधान किया जाता है । यह णिजन्त - प्रक्रिया
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