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[23] यहाँ पर सरूपाणामेकशेषः एकविभक्तौ । १-२-६४ सूत्र कहता है कि - एक . ही विभक्ति (प्रत्यय) में स्थित समान रूपवाले (= समान आनुपूर्वीवाले) शब्दों में से एक शब्द का शेष रहता है । (और अन्य शब्दों का लोप होता है) । यथा – राम + ० + 0 + जस् । जिसमें से आगे चलकर 'रामाः' रूप की
सिद्धि होती है ॥ (ख)हंसी च हंसश्च । इस विग्रह पर चार्थे द्वन्द्वः । २-२-२९ सूत्र की प्राप्ति होती
है । परन्तु एकशेष प्रकरण (१-२-६४ से ७३) के सूत्र अनवकाश होने के कारण द्वन्द्व समास का बाध करता है ।12 इस के बाद, पुमान् स्त्रिया । १-२-६७ सूत्र की प्रवृत्ति होती है : स्त्री के साथ कहा गया पुमान् (वाचक शब्द) अवशिष्ट रहता है - ऐसी सूचना से "हंसौ" ऐसा शब्द सिद्ध होता है ॥13 यहाँ पर भी विग्रहवाक्य (हंसी च हंसश्च) में से 'हंसौ' ऐसा एकशेष-पद सिद्ध किया है - यह ध्यातव्य है । और एकशेष-प्रकरण के सभी-सूत्र रूपान्तरण के
नियम प्रस्तुत करते है ॥ 2.1.5 सनाद्यन्त धातु रूपा वृत्ति :
'अष्टाध्यायी' में गुप्तिकिट्य सन् । ३-१-५ से लेकर ३-१-३० पर्यन्त जो जो -सन्/, /-क्यच्/, /-काम्यच्/, /-क्यङ्/, /-णिङ्, /-णिच्/, /-य/, /-यङ्लुक्/ इत्यादि प्रत्ययों का विधान किया गया है, वे 'सनादि' प्रत्यय कहे जाते हैं । इन प्रत्ययों के प्रयोग से एक पूरे विग्रह वाक्य का एक पद में रूपान्तरण किया जा सकता है । यथा - ___ (१) सुप आत्मनः क्यच् । ३-१-८ सूत्र से कहा गया है कि - इच्छा क्रिया के कर्म (वाचक) द्वितीया सुबन्त पद से परे, “इच्छा" अर्थ में, "क्यच्" प्रत्यय होता है; जब इच्छा करनेवाला (कर्ता) द्वितीयान्त पदवाच्य अर्थ (= वस्तु) को अपने लिए चाहता है । उदाहरण के लिए – 'पुत्रम् आत्मनः इच्छति ।' इस विग्रह वाक्य में से 'पुत्रीयति' जैसा क्यजन्त क्रियापद निष्पन्न किया जाता है । 12. अनवकाश एकशेषो द्वन्द्वं बाधिष्यते । (१-२-६४ इत्यत्र महाभाष्यम्) 13. यः शिष्यते स लुप्यमानार्थाभिधायी । ऐसे (१-२-६४) भाष्योक्त नियम से अविशिष्ट रहनेवाला
हंसः (पुंलिग) शब्द हंसी का भी बोध करायेगा । अत: उसको द्विवचन में रखा गया है।
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