________________
भिस्
भ्याम्
भ्यस्
भ्याम्
भ्यस्
ओस्
स्वौजसमौट् छष्टाभ्याम्भिस् डेभ्याम्भ्यस् उसिभ्याम्भ्यस्-ङसोसाम् ङ्योस्सुप् । ४-१-२ धातुभिन्न, प्रत्ययभिन्न, प्रत्ययान्तभिन्न हो ऐसे अर्थवान् शब्दस्वरूप की 'प्रातिपदिक' संज्ञा होती है । और सभी प्रातिपदिकसंज्ञक शब्दों को भिन्न भिन्न विभक्तियों में उपर्युक्त सूत्र ४-१-२ में विहित २१ साधारण प्रत्यय लगते हैं, जिनका विश्लेषण निम्नोक्त है :
एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथमाविभक्ति
जस् द्वितीयाविभक्ति
शस् तृतीयाविभक्ति
भ्याम् चतुर्थीविभक्ति पञ्चमीविभक्ति षष्ठीविभक्ति
ङस् ओस्
आम् सप्तमीविभक्ति
सुप् इन २१ साधारण प्रत्ययों को 'सुप् विभक्ति' कहते हैं । यहाँ पर प्रथमा विभक्ति के 'सु' प्रत्यय से, सप्तमी बहुवचन के 'सुप्' प्रत्यय के अन्तिम वर्ण अनुबन्ध 'प्' को जड़ जोड़कर एक "सुप्' प्रत्याहार बनाया जाता है । यह 'सुप्' प्रत्यय जिन नामों (प्रातिपदिकों) में लगे होते हैं, उन सुप् प्रत्ययान्त नामों को "सुबन्त-पद" कहते हैं । यथा – राम + औ = रामौ । __नाम (प्रातिपदिक) को लगनेवाले २१ सामान्य प्रत्यय (रूपघटक morphime अर्थात् रूपिम) तो लक्षणकार पाणिनि ने बताये हैं। लेकिन वास्तविक लक्ष्य (अर्थात् प्रयोगावस्था) में तो कोई एक निश्चित अर्थ व्यक्त करने के लिए विभिन्न प्रत्यय (= उपरूपघटक = उपरूपिम) देखने को मिलते हैं । उदाहरण के लिए - पाणिनि ने अपने तन्त्र में स्वौजसमौट्० । ४-१-२ सूत्र से चतुर्थी विभक्ति एकवचन का एक ही सामान्य प्रत्यय (रूपघटक) ङे बताया है । परन्तु व्यवहार में (भाषा में) तो इसी अर्थ में (याने चतुर्थी विभक्ति एकवचन में) रामाय, सर्वस्मै, सर्वस्यै, ज्ञानिने, जगते, वाचे, मालायै, नद्यै , कवये-भानवे, तुभ्यम्-मह्यम् जैसे विभिन्न प्रकार के चतुर्थी विभक्त्यन्त पद सुनाई पड़ते हैं । अतः पाणिनि की रूपाख्यान पद्धति को जो अध्येता तार्किक दृष्टि से आत्मसात् करना चाहता है उसी के दिमाग में यह प्रश्न उठेगा 1. अर्थवद् अधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् । पा. सू. १-२-४५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org