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[3] (१) सर्वप्रथम विवक्षित अर्थ का प्रदर्शन; अर्थात् प्रत्यय से अभिधेय (अभीष्ट) अर्थ का
पूर्व में (in put के रूप में) निर्धारण । यथा :- √ भू सत्तायाम् ' । या डुकृञ् करणे' । (धातुपाठ), वर्तमाने लट् । ३-२-१२३, (अनभिहिते) कर्मणि द्वितीया । २-३–२; अपवर्गे' तृतीया । २- ३ – ६, बहुषु बहुवचनम् । ३-४-२१ इत्यादि । इस तरह देखें तो किसी भी 'पद' की रूपप्रक्रिया में 'अर्थ' आरम्भबिन्दु है ।
(२) (द्रव्यादि या क्रियारूप कोशगत) अर्थ की वाचिका प्रकृति एवं लिङ्गवचनादिरूप व्याकरणिक अर्थों के वाचक प्रत्यय की स्थापना द्वितीय सोपान पर की जाती है ।
(३) रूपसाधनिका के तृतीय सोपान पर, स्थान्यादेश -भाव की प्रयुक्ति का आश्रयण किया जाता है, जिसमें प्रकृति के स्वरूप को मध्ये नजर रखते हुए, आवश्यकतानुसार स्थानिभूत साधारण प्रत्यय के स्थान पर, किसी नये आदेश का विधान किया जाता है ।
( ४ ) प्रकृति और प्रत्यय का संयोजन करने से पहले, आवश्यकतानुसार कोई विकरण प्रत्यय या आगमभूत वर्ण का उचित स्थान पर प्रवेश करवाना भी जरूरी होता है । ऐसे आगमविधान प्रायः चतुर्थ सोपान पर दिखाई देते हैं ।
(५) अन्तिम सोपान पर, प्रकृति और प्रत्यय में, संहिताजन्य ध्वनिपरिवर्तन (ध्वनिविकार) किया जाता है, जिस के फलस्वरूप सुबन्त एवं तिङन्त 'पद' की सिद्धि पूर्णता को प्राप्त करती है ।
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निरुक्तकार यास्क जैसे आचार्यों ने माना है कि भाषा में चार प्रकार के शब्द होते हैं यथा—नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात । जबकि महर्षि पाणिनि ने वाक्य के अन्तर्गत दो ही प्रकार के 'पद' माने हैं ( सुप्तिङन्तं पदम् । १-४ -१४ ) और इन दो प्रकार के पदों की रूपसाधनिका में जो सोपानङ्क्ति है, वह पूर्वोक्त क्रम में (ही) प्रायः दिखाई देती है । 1.1 स्थान्यादेश - भाव की प्रयुक्ति :
साधनिका के उपर्युक्त क्रम में तृतीय स्थान पर जो स्थान्यादेश - भाव की प्रयुक्ति का उल्लेख किया गया है उसको सोदाहरण विशद करने की आवश्यकता है । यथा (क) (रूढ) नामवाचक प्रकृति ( प्रातिपदिक) को लगनेवाले २१ सामान्य रूपघटक (= रूपिम ) प्रत्ययों का परिगणन करते हुए पाणिनि ने एक सूत्र लिखा है
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