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________________ प्रद्युम्नकुमार-चुपई निरूपण करे छे, तो क्यांक तेनां उदाहरणो पण आपे छे. अंतमा कवि नवतत्त्वना प्रभावना महिमा गातां कहे छे के : भावि करी सदहि नक्तत्व अयाणनंई हुई समकित्व- ६३ अंतर महूरत समकित धरइ ते नर अरधु पुद्गल करइ वाचक कमलशेखर इम कहइ गणिइ भविइ सिद्ध पदवी लहइ-६४' छेल्ले सद्गुरु धर्ममूर्तिसूरिनु स्मरण, कृतिनुं रचना-स्थळ अने तेनो रचना-समय तथा आ 'चोपाई" ना श्रोता-वाचक माटे आशीर्वचन इत्यादिन निरूपण करवामां आव्यु छे. कल ६६ कडीना आ काव्यमा ३०मी अने ३१मी कडी दोहरा-छंदमां, ज्यारे बाकीनी बधी कडीओ सळग चोपाईमां लखेली छे. कर्तार जेवा सगळ छंदोबंध रच्या छे, तेवी ज तेमनी कयनशैली पण सरळ छे. सीधी सादी रीते मात्र नव तत्त्वना भेद प्रभेदन निरूपण करेलु के नथी यांय कशानां वर्णन के नथी कोई भभकभर्या अलंकारोनी शोभा. जो के तेने अहीं अवकाश पण नथी, छतां आखी य कृति कर्तानी लाघवशक्तिनो अने शब्दप्रभुत्वनो सारा परिचय करावे छे. एक उदाहरण आपुं: पुण्यतत्त्व अंतर्गत पुण्य भोगववानां बेतालीस प्रकारमां, आत्माने जे पुण्यना उदयथी पर्यकासने बेसतां जेनी चारे बाजु सरखी होय एवा संस्थान (शरीराकृति)न। प्राति तथा शुभ वर्ण, शुभ गंध, शुभ रस अने शुभ स्पर्शनी प्राप्ति थाय तेनुं कर्ताए संक्षेपमां सरळ रीते सुंदर शब्दोमां आम निरूपण के 'पंचेंद्रीपणु लहइ जे सार वरण सेत रत्त पीत उदार गंध अपूरव हुइ जेय, मधुर खट्ट कषाय रस-तेय१९ हलूउ सुहाल चीगटु, ऊहनु फरिम रुडु सामटु' -तो काव्यनी प्रथम पंक्ति मां ज वर्णसगाई अने प्रास नुप्रास केवा अनायासे सधाया छे ते जुओ : 'सरसती सांमणि समरु माय पास जिणेसर पणमु पाय' काव्यनी प्रत्येक पंक्ति प्रासानुप्रासथी बंधायेली छे. तथा भाषा पण बहुधा संयुक्ताक्षररहित. सरळ छे. आथी सामान्य जन माटे आ काव्य याद राखवू सरळ थई जाय तेम छे अने आथी ज, प्राकृतभाषामां रचायेलों अने समजवा अघरा एवा आ धार्मिक दृष्टिए महत्त्वना सत्रनु सरळ गुजरातो पद्य रूपान्तर करी, सामान्य भविक जीवो माटे तेनो अर्थबोध सरळ करी. तेमने एन आचरण करवा प्रेरवानो कर्तानो मनोरथ अहीं सिद्ध थयेलो जणाय छे. टंकमां ती सरळ समजती माटे समुचित शब्दनी पसंदगीनी सूझ तथा अनायास सिद्ध पद्यनिरूपणमीरीतिनो आ काव्य द्वारा आपणने परिचय थाय छे. वळी वा. कमलशेखरे आवी तात्त्विक करती कतिन सर्जन कयु तेना उपरथी एटलु तो फलित थाय छे के तेमने जैन फिलसफीनो सारो अभ्यास हशे अने तेमनु आध्यात्मिक चिंतन पण उच्च कोटीन हो १. परिशिष्टमां ग्रंथस्थ करेली आ कृति मुजब आ संख्यांक लखेला छे.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002633
Book TitlePradyumnakumara Cupai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalshekhar, Mahendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1978
Total Pages196
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size9 MB
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