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________________ ७५ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व को माननीय गृहस्थ धर्म से पहले भी उत्तम आभोगिकशान ( अवधिज्ञान ) था | अभिनिष्क्रमण के पूर्व वार्षिक दान देकर वे हेमन्त ऋतु के द्वितीय मास, तृतीय पक्ष, अर्थात् पोष मास के कृष्ण पक्ष की ग्यारस के दिन, पूर्व भाग के समय ( चढ़ते हुए प्रहर में ) विशाला शिविका में बैठकर देव, मानब और असुरों के विराट समूह के साथ वाराणसी नगरी के मध्य में होकर निकलते हैं । निकल कर जिस ओर आश्रमपद नामक उद्यान है, जहाँ पर अशोक का उत्तम वृक्ष है, उसके सन्निकट जाते हैं । सन्निकट जाकर के शिविका को खड़ी रखवाते हैं । शिविका खड़ी रखवाकर शिविका से नीचे उतरते हैं । नीचे उतर कर, अपने ही हाथों से आभूषण, मालाएँ और अलंकार उतारते हैं । अलंकार उतारकर, स्वयं के हाथ से पंच मुष्ठि लोच करते हैं । लोच करके निर्जल अष्टम भक्त करते हैं । विशाखा नक्षत्र का योग आते ही, एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर दूसरे तीन सौ पुरुषों के साथ मुंडित होकर गृहवास से निकलकर अनगार अवस्था को स्वीकार करते हैं । " पुरुषादानीय अर्हत् पाश्व तेरासी (८३ ) दिनों तक नित्य सतत शरीर की ओर से लक्ष्य को व्युत्सर्ग किए हुए थे । अर्थात् उन्होंने शरीर का ख्याल छोड़ दिया था । इस कारण अनगार दशा में उन्हें जो कोई भी उपसर्ग हुए, चाहे वे दैविक थे, मानवीय थे, या पशु-पक्षियों की ओर से उत्पन्न हुए थे, उन उपसर्गों को वे निर्भय रूप से सम्यक् प्रकार से सहन करते थे, तनिक मात्र भी क्रोध नहीं करते, उपसर्गों की ओर उनकी सामर्थ्य युक्त तितिक्षा वृत्ति रहती और वे शरीर को पूर्ण अचल और दृढ़ रखकर उपसर्गों को सहन करते थे | 2 उसके पश्चात् भगवान पाश्व अनगार हुए, यावत् इर्यासमिति से युक्त हुए और इस प्रकार आत्मा को भावित करते-करते तैरासी ( ८३ ) रात्रि दिन व्यतीत हो गये । चौरासीचाँ दिन चल रहा था । गीष्म ऋतु का प्रथम मास, प्रथम पक्ष अर्थात् चैत्र मास का कृष्ण पक्ष आया, उस चैत्र मास की चतुर्थी को पूर्वाह्न में आंबले (धातकी) के वृक्ष के नीचे षष्ठ तप किये हुए, शुक्ल ध्यान में लीन थे। तब विशाखा नक्षत्र का योग भाया, उन्हें उत्तमोत्तम केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । यावत् वे सम्पूर्ण लोकालोक के भावों को देखते हुए विचरने लगे । 3 शिष्य संपदा : पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के आठ गणधर थे । वे इस प्रकार है(१) शुंभ ( २ ) अज्जघोष - आर्यघोष (३) वसिष्ठ ( ४ ) ब्रह्मचारी (५) सोम (६) श्रीधर (७) वीरभद्र और (८) यश 14 पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में अज्जदिण्ण ( आर्यदत्त ) आदि सोलह हजार साधुओं की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा थी । पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में पुष्पचूला आदि अड़तीस हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट आर्यिका सम्पदा थी । 1. सू० १५३ 2. सू० १५४ Jain Education International 3. सू० १५५ 4. सू० १५६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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