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________________ ७६ . पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में सुनन्द आदि एक लाख चौसठ हजार श्रमणो. पासकों की उत्कृष्ट श्रमणोपासक संपदा थी । पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में सुनन्दा आदि तीन लाख और सत्ताईस हजार श्रमणोपसिकाओं की उत्कृष्ट श्रमणोपासिकासम्पदा थी। पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में साढ़े तीन सौ जिन नहीं, किन्तु जिन के सदृश सर्वाक्षर संयोगों को जानने वाले यावत् चौदहशूर्वधारियों की सम्पदा थी । पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में चौदह सौ अवधिज्ञानियों की सम्पदा थी । पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समुदाय में एक हजार केवलज्ञानियों की सम्पदा थी । ग्यारहसौ क्रिय लब्धि वालों की तथा छह सौ ऋजुमति ज्ञान वालों की सम्पदा थी। भगवान पार्श्वनाथ के एक हजार श्रमण सिद्ध हुए, तथा उनकी दो हजार आर्यिकाएँ सिद्ध हुई । पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के संघ में साढ़े सात सौ विपुलमतियों की ( विपुलमति मनःपर्यव ज्ञान वालों की), छह सौ वादियों की और बारहसौ अनुत्तरौपपातिकों की अर्थात् अनुत्तर विमान में जाने वालों की संपदा थी 11 पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व के समय में अन्तकृतों की भूमि अर्थात् सर्व दुःखों का अन्त करने वालों की भूमि दो प्रकार की थी । जैसे कि एक तो युग अंतकृत भूमि, और दूसरी पर्याय-अन्तकृत् भूमि । यावत् अर्हत् पार्श्व से चतुर्थ युगपुरुष तक युगान्तकृत् भूमि थी अर्थात् चतुर्थ पुरुष तक मुक्ति मार्ग चला था । अर्हत् पार्श्व का केवलीपर्याय तीन वर्ष का होने पर अर्थात् उनको केवलज्ञान हुए तीन वर्ष व्यतीत होने पर किसी साधक ने मुक्ति प्राप्त की । अर्थात् मुक्तिमार्ग प्रारम्भ हुआ । वह उनके समय की पर्यायान्तकृत्भूमि हुई। ३ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व तीस वर्ष तक गृहवास में रह करके, तैरासी ( ८३ ) रात्रिदिन छद्मस्थ पर्याय में रह करके, पूर्ण नहीं, किन्तु कुछ कम सत्तर (७०) वर्ष तक केवलीपर्याय में रह कर के, इस प्रकार पूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन करके, कुल सौ वर्ष तक अपनी सम्पूर्ण आयु भोग कर वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र कर्म के क्षीण होने पर दुषम-सुषम नामक अवसर्पिणी काल के बहुत व्यतीत हो जाने पर, वर्षाऋतु का प्रथम मास, द्वितीय पक्ष अर्थात् जब श्रावण मास का शुक्ल पक्ष आया, तब श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन सम्मेतशिखर पर्वत पर अपने सहित चौतीस पुरुषों के साथ (१ पार्श्वनाथ और दूसरे तै तीस श्रमण इस प्रकार कुल ३४) मासिक भक्त का अनशन कर पूर्वाह के समय, विशाखा नक्षत्र का योग आने पर दोनों हाथ लम्बे किये हुए इस प्रकार ध्यान मुद्रा में अवस्थित रह कर काल धर्म को प्राप्त हुए, यावत् सर्व दुःखों से मुक्त हुए ।' पुरिसादानीय अर्हत् पाव को काल धर्म प्राप्त हुए, यावत् सव' दुःखों से पूर्णतया मुक्त हुए बारहसौ वष व्यतीत हो गये और यह तेरह सौ वष का समय चल रहा है। 1. सू० १५७ 3. सू. १५९ 2. सू० १५८ 4. सू० १६० - कल्पसूत्र, सं० श्री देवेन्द्रमुनिशास्त्री, सिवाना, १९६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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