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________________ ६६ विभिन्न दृष्टान्तों द्वारा श्रावक के व्रत का सविषय होना सिद्ध करके गौतम स्वामी उदक के प्रश्न की अत्यधिक असंगतता दर्शाते है। तत्पश्चात - उदक पेढालपुत्र महावीर स्वामी के निकट चार याम वाले धर्म से पच महाव्रत वाले धर्म को प्रतिक्रमण के साथ प्राप्त करके विचरते है । व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) भगवान पाश्वनाथ के सन्तानीय शिष्यानुशिष्य कालास्यवेषिपुत्र नामक अनगार, जिन्होंने पाश्वनाथ की परम्परा में दीक्षा ली थी उन्हेंाने महावीर के अनुयायी स्थविर भगवन्तों से धर्म सम्बन्धी चर्चा की और सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक, त्युत्पर्ग आदि धर्मतत्त्या के विषय में प्रश्नोत्तर किये । तब महावीर के अनुयायी स्थविरों ने कहा कि आत्मा ही सामायिक है, यहो सामायिक का अर्थ है और यही व्युत्सग है। संयम के लिए क्रोव, मान, माया और लोभ का त्याग कर इनकी निन्दा की जाती है। गहीं संयम है और अगहीं संयम नहीं । गर्दा समस्त दोषां का नाश करती है। आत्मा सर्व मिथ्यात्व को जानकर गर्दा द्वारा समस्त दोषों का नाश करती है। बोध प्राप्त कर कालास्यवेषि अनगार ने पचमहावत वाले धर्म को स्वीकार किया तथा महावीर स्वामी का शिष्य बना 12 पाश्र्वनाथ के सन्तानीय स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान महावीर से पळा - असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, तो इसका कारण क्या है? महावीर स्वामी ने उत्तर दिया - असेख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस हए, होते है व होंगे, विगत हए, विगत होते हैं, विगत होंगे, कारण कि श्री पाश्वनाथ भगवान के अनुसार लोक शाश्वत, अनादि और अनन्त है । यह चारों ओर से अलोक से घिरा हुआ है । इसका आकार नीचे पर्यक के जैसे संस्थान वाला है, मध्य में उत्तम वज्र सदृश आकृति और ऊपर ऊर्व मृदंगकार जैसा है। ऐसे लोक में अनन्त जीवधन तथा परित्त-मर्यादित जीवधन उत्पन्न होकर मरते रहते है । इस दृष्टि से लोक भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है । लोक अजीवादि पदार्थों द्वारा पहचाना जाता है । जो लोकित हो-जाना जाय, वह लोक कहा जाता है। ज्ञानोपलब्धि के पश्चात् पाव के सन्तानीय स्थविर भगवन्त भगवान महावीर के शिष्य बने । पाश्व सन्तानीय गांगेय अनगार ने महावीर से नरक में जीव निरन्तर उत्पन्न होते 1. सूत्रकृताङ्गसूत्र, पी० एल० वैद्य, बम्बई, वि० सं० १९२८, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सप्तम अध्ययन । 2. व्याख्याप्रज्ञप्ति, अभयदेव पूरीश्वरविरचिवृत्ति, द्वि० संस्करण, आगमोदय-समिति, मेहसाणा. वि० सं० १९१८-२१, शतक १, उद्देश ९, सूत्र ७६ पृ० १७५-४१७ 3. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ५, ९ सू. २२६ पृ० ४४८, ४५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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