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व्यतिरेक अलंकार
तदीयजद्धाद्वयदीप्तिनिर्जिता वन गता सा कदली तपस्यति । चिराय वातातपशीतकर्ष गैरधःशिरा नूनमखण्डितव्रता ॥ ५, १३ ॥
इस श्लोक में कवि ने उपमान कदली वृक्ष से उपमेय प्रभावती की जांघों के सौन्दय के आधिक्य का वर्णन कर व्यतिरेक अलंकार का बड़ा ही सुन्दर निदर्शन उपस्थित किया है। "उपमानाद यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः"1 के अनुसार यहाँ व्यतिरेक अलंकार है।
घभाषोक्ति अलंकार स्तन धयन्त काऽपि स्त्री त्यक्त्वाऽधावत् स्तनधयम् । प्रसाधितेकपादाऽगात् काचिद् गलदलक्तका ।। ६, १४ ।।
श्री पार्श्व को देखने को आतुर महिलाओं का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि कोई स्त्री अपने दूध पीते (स्तनपान करते ) बच्चे को छोड़ कर दौड़ी। कोई स्त्री एक ही पैर में महावर लगाये हुए दौड़ने लगी और कोई अन्य स्त्री गलते हुए अलते वाली ही दौड़ रही थी ।
"स्वाभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम्"2 सूत्र के अनुसार यहाँ स्त्रियों का अपने 6 किये हए कायों को श्रीपाश्व' को देखने के कौतहलवश अधबीच छोड कर टौखने का अत्यन्त स्वाभाविक चित्रण किया गया है।
यमक अलंकार सदैव यानासनसङ्गतौ गतौ निगढ़गुरुफाविति सन्धिसंहतौ । स्फुट तदही कृतपार्णिसङ्ग्रहो सविग्रही तामरसैर्जिगीषुताम् ।। ५, १२॥ कटिस्तदीया किल दुर्गभूमिकासुमेखलाशालपरिष्कृता कृता । मनोभवेन प्रभुणा खसंश्रया जगज्जनोपप्लवकारिणा ध्रुवम् ॥ ५, १५ ॥
इन दोनों ही श्लोको में “पादमध्यमयमकमिति पादाना मध्ये यमितत्वात्" के अनुसार पादमध्यमयमक है । 1. आचार्य विश्वेश्वर कृत मम्मट का काव्यप्रकाश, वाराणसी, १९६०, दशम उल्लास,
सू. १५९, पृ० ४९१. 2, वही, दशम उल्लास, सू० १६८, पृ० ५०५ ।
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