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रूपक अलंकार
(१) पदारविन्दे नखकेसरद्युती स्थलारविन्द श्रियमूहतु शम् ।
विसारिमृद्वगुलिसच्छदेऽरुणे ध्रुवं तदीये जितपल्लवश्रिणी ।। ५, ९ ॥ ___ इस श्लोक में एक सावयव रूपक का निरूपण हुआ है । कवि की कल्पनाशक्ति चरणों को स्थलकमल के रूप में देखती है । इसके अतिरिक्त श्लोक के अपराध में व्यतिरेक की छाया दिखलाई देती है, जहाँ कवि पल्लव की शोभा को भी जीत लेने का निर्देश करता है । इस श्लोक में उपमेय उपमान की शोभा को हर लेता है । कवि की शब्दपसंदगी और रचनाकौशल के कारण रूपक मनोहर बन गया है ।
(२) सुकोमलाङ्ग्या मृदुबाहुवल्लरीद्वयं बमौ लोहितपाणिपल्लवम् ।
नखांशुपुष्पस्तबकं प्रभास्वराऽङ्गदाऽऽलवालद्युतिवारिसङ्गतम् ॥ ५, २२ ॥
अलंकार शास्त्र की दृष्टि में सम्पूर्ण कह सके ऐसा यह सावयवरूपक, मौलिक कल्पना के साथ हमारे सम्मुख आता है । लता की अवयवों सहित बाहओं के साथ सावयव तुलना की गई है । भास्वर अंगद को आलवाल का रूपक देकर कवि ने इस रूपक को सम्पूर्णता का रूप प्रदान किया है और लता के रूपक को अधिक प्रतीतिकर बनाया है। परिणामस्वरूप रूपक की शोभा अधिक निखर उठी है ।
उत्प्रेक्षा अलंकार
(१) भ्रवौ विनीले रेजाते सुषमे सुन्दरे विभोः ।
विन्यस्ते वागुरे नूनं स्मरै णस्येव बन्धने ॥ ४, ५१ ॥
प्रभु के घने नीलवर्ण वाली भौहों की उत्प्रेक्षा कवि कामदेवरूप हिरन को बाँधने के लिए फैलाई हुई दो जाल से करता है ।
(२) तस्य तुङ्गायता रेजे नासिका सुन्दराकृतिः ।।
लक्ष्यते यत्र वाग-लक्ष्म्योः प्रवेशाय प्रणालिके ।। ४, ५६ ।।
पार्श्व की सुन्दर आकृति वाली उन्नत और लम्बी नाक कवि की दृष्टि में ऐसी थी मानो वह नाक सरस्वती और लक्ष्मी, इन दोनों ही देवियो के प्रवेश के लिए वनाई गई दो नालियाँ हों ।
इन दोनों ही श्लोकों में "सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य (वर्ण्य उपमेय) समेन (उपमान के साथ) यत्" के अनुसार उत्प्रेक्षा अलंकार है।
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