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शान्त रस
प्रस्तुत काव्य के सम्पूर्ण कथानक के कलेवर में शान्त रस व्याप्त दिखलाई देता है। शान्तरस के स्थायी भाव दो माने गये हैं- 'शम' यानि कि चित्त का शान्त होना एवं दूसरा 'निर्वेद' - अर्थात् संसार के विषयों के प्रति वैराग्य । यहाँ शान्त रस में दोनों ही प्रकार के स्थायी भाव फलीभूत होते दिखलाई देते हैं । महाकाव्य में वर्णित प्रायः प्रत्येक पुरुषपात्र ( प्रतिनायक को छोड़ कर ) चित्त से सदा शांत रहने वाले एवं एक छोटे से निमित्त के मिलते ही सांसरिक मोह को त्याग तत्त्वज्ञान एवं तपश्चर्या के द्वारा वैराग्य के उत्कर्ष को प्राप्त कर शान्ति की प्राप्ति करते हैं ।
महाकाव्य के मुख्य पात्र श्रीपार्श्व के चरित्र की मूलवृत्ति में और उनके द्वारा अर्जित सिद्धि में इसी शान्त रस के दर्शन होते हैं । प्रस्तुत काव्य में शान्त रस का परिपाक हम इन स्थानों पर देख सकते हैं-
पंचम सर्ग में नन्दनवन के भवन में आलेखित नेमिचरित को देखकर पार्श्व का विर क्तचित्तता से साम्वत्सरिक दान देना और संसार की नश्वरता की भावना करना (श्लोक ७१ से सर्ग के अन्त तक ), सम्पूर्ण छडे सर्ग में पार्श्व के तप व उपदेश आदि के वर्णन में, सप्तम सर्ग में इन्द्र द्वारा श्रीपार्श्व की स्तुति के वर्णन में, तथा प्रत्येक भव में विभिन्न प्रकार के उपसर्गों के समय पार्श्व की अविच्छन्न अडिग शान्तमनः स्थिति वाले चित्रण में भी शान्त रस का ही दिग्दर्शन होता है ।
इसके अतिरिक्त प्रथम सर्ग में वर्णित राजा अरविन्द के वायु द्वारा प्रच्छिन्न बादलों
कि समूह को देखकर संसार से विरक्ति-संवेग उत्पन्न होने व उनके मुनि बन जाने के वर्ण में शान्त रस का ही पुट मिलता है (श्लोक ३२ से ४४ तक ) । प्रथम सर्ग में वर्णित किरणवेग नामक राजकुमार का धर्मोपदेश का सुन वैराग्य धारण कर दीक्षित होना ( ५३ से ६० तक ), तत्पश्चात् प्रथम सर्ग में ही वर्णित वज्रनाभ नामक राजकुमार का जिनदे से दीक्षित होना ( श्लोक ७३ से ७६ ), इसके साथ ही द्वितीय सग में आये राजकुमार कनकप्रभ का वर्णन जहाँ उनका देवताओं के दर्शन करने पर विरक्त हो तपचर्या हा विवरण (श्लोक ३३ से ४४ तक ) आया है- इन सभी का ही प्रतिपादन कवि ने किया है ।
स्थानों पर शांत रस
शन्त रस के पोषक कतिपय दृष्टान्तों को देखिए
(१) नाप्यलिप्त सदा ऽरविन्दवत् सोऽरविन्दमुनिपो भवाम्बुनि । निर्ममः स निरहङ्कृतिः कृती निष्कषायकलितान्तरिन्द्रियः ॥ १, ३४ ॥
इस श्लोक में राजो अरविन्द के संसार से वैराग्य, शान्तचित्तता एवं संयम धारण कर का वर्णन किया गया है ।
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(२) स्तुत्वैवं त्रिदशाधिपास्त्रिजगतामीश' व्रतश्रीभूत जग्मुः स्वालयमेव बन्धुजनता प्रापाथ शोकार्द्दिता ।
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