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सातवे सर्ग की स्तुतियाँ :
७. ५- यहाँ, स्वयम्भूः, परंज्योतिः, प्रभविष्णुः, अयोनिजः, महेश्वरः, ईशानः, विष्णु:, जिष्णुः, अजः, अरजः कह कर पार्श्व की स्तुति की गई है । इस प्रकार की स्तुति में कवि ने ब्राह्मणपरम्परा में ईश्वर के लिए प्रयुक्त शब्दावली-पदावली का प्रयोग किया है ।
७ १८--३०- इन इलाकों में पाश्व' की स्तुति अनेक अर्थगभित नामों से की गई है । इनमें से कई नाम ब्राह्मणपरम्परा प्रचलित नाम हैं, जैसे शम्भुः, आदिपुरुषः ( ७, १८) हिरण्यगर्भः (७, २०), अच्युत: (७, २१), हरः (७,२१) पुराणकविः (७, २२), ब्रह्म (७, २७), चिदानन्दमयः (७,३०) इत्यादि ।
त्वं विश्वतोमुखो ( ७, १९ ) इत्यादि श्लोफ की तुलना ब्राह्मणपरम्पर। में प्रचलित ईश्वरवर्णनात्मक निम्न श्लोक पादों से करना रसप्रद होगा
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखा विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । ( नारायणोपनिषद् ३. २ और तै० आ० १०)
अणीयांश्च गरीयांश्च ... ( ७, २६) इस श्लोक में उपनिषद् के “अणोरणीयान्' की ध्वनि सुनाई देती है ।
७. ३१-३६-ये श्लोक भक्तिभावपूर्ण स्तुतिपद हैं ।
इस प्रकार काव्य में उपस्थित समग्र स्तुतियों का अध्ययन करने के पश्चात हम देखा कि कवि के स्तोत्रों की भाषा अधिकांशत: ब्राह्मणपरम्परा में प्रचलित प्रभु के लिए प्रयुक्त विशेषणों एवं पदावलियों से संपृक्त है और कहीं कहीं उनकी भाषा काव्यचमत्कार से पूर्ण, अलंकार एवं भक्तिभाव से प्रचुर दिखाई देती है । इति ।।
इसी प्रकार की स्तुतियां जिनमें श्रीपार्श्व की स्तुतियां भी सम्मिलित हैं. झं लब्धप्रतिष्ठ दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित 'स्वयम्भूस्तोत्र' एवं 'स्तुति विद्य नामक स्तोत्रग्रन्थों में प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार सिद्धसेन की स्तुतियाँ भी नमूना हैं। रस निरूपण
___ इस काव्य का अंगी रस शान्त है तथा अंगभूत गौण रस के रूप में श्रृंगार व वीर रस प्रयुक्त हुए हैं ।
1. स्तोत्रों द्वारा स्तुति करने की परम्परा जैन साहित्य की अति प्राचीन परम्पा है और जैनों में आदिपुराण से लेकर चली है। जिनसेन के महापुराण और हेमचन्न के त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित में इसी प्रकार की स्तुतियाँ पाई जाती हैं । देखिए-जिनसेन का महापुराण, बनारस, १९४४,भाग १ महाराजा भरत द्वारा भगवान् वृषभदेव की स्तुरिपृ० ५७५-५८१, और भाग २ में पृ० १४१-१४९ ।
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