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________________ ६३ प्रभावती की जांघों के सौन्दर्य के आगे तिरस्कृत, अपमानित या झुके हुए सिर वाला वह केले का वृक्ष सभी ऋतुओं से अखण्डितव्रत होकर जंगल में चिरकाल से तपस्या कर रहा है । कितना सरल और माधुर्य से युक्त है यह श्लोक । इसी से यह वैदर्मी रीति का सुन्दर उदाहरण है । गौडी रीति का उदाहरण : क्षोणीशस्य प्रसेनस्य च परदलनाभ्युद्यतस्यापि चापा-न्निर्यातो बाणवारः समरभरमहाम्भोधिमन्थाचलस्य । नो मध्ये दृश्यते वा दिशि विदिशि न च क्वापि किन्तु व्रणाङ्कः शत्रूणामेव हृत्सु स्फुटमचिरमसौ पापतिर्दूरवेधी ॥ ४, १५० ॥ इस श्लोक में युद्ध करते समय के राजा प्रसेनजित् के वीरता से लड़ने का वर्णन गौडी रीति में किया गया है । राजा प्रसेनजित् समराङ्गणरूप महासागर का मन्थन करने में पर्वत के समान हैं और शत्रुओं को नष्ट करने के लिए उद्यत पृथ्वीपति रूप हैं । उनके धनुष से निकले हुए बाण इधर-उधर ना जाकर सीधे शत्रुओं के हृदयों में ही अपने घाव करते हैं यह वर्णन चित्त को सजग और विस्तृत बनाता है अतः चित्त में ओज गुण का प्रादुर्भाव होता है और इस ओज गुण पर आधारित रीति ही गौडी रीति कही जाती है । इस वर्णन में बड़े बड़े समासों का प्रयोग किया गया है और यहाँ पर प्रयुक्त छन्द स्रग्धरा है । अतः यह गौडी रीति का सुन्दर व उत्कृष्ट उदाहरण है । स्तोत्र की भाषा : प्रस्तुत काव्य में, नायक के तीर्थंकर होने की वजह से स्तुतियाँ प्रचुर मात्रा में आई हैं । ये स्तुतियाँ तृतीय सर्ग में श्रीपार्श्व के जन्मोत्सव के समय श्लोक ११२ ११३ व १९९ से २१७ तक के श्लोकों श्रीपार्श्व के दीक्षा ग्रहण करने पर पंचम सर्ग के ८४ से ९१ एवं ९७ से १०६ तक के श्लोकों में, तथा सप्तम सर्ग में, ज्ञान प्राप्त करने पर ५ से ४० तक के श्लोकों में पाई जाती हैं । इन्द्राणी एवं अन्य देवीदेवताओं द्वारा सम्पन्न की गई है । पार्श्व के केवल ये स्तुतियाँ इन्द्र, अब हम क्रमशः सर्गानुसार इन स्तुतियों पर आलोचनात्मक दृष्टि डाल कर यह देखेंगे कि ये स्तुतियाँ किस प्रकार की हैं तथा इनकी भाषा किस प्रकार की है - सर्वप्रथम तीसरे सर्ग की स्तुतियों पर दृष्टिपात करते हैं । Jain Education International ३. ११२-११३ - इन दो श्लोकों में प्रभु की जो स्तुति की गई है उसमें प्रभु को ' विश्वमूर्ति ' और ' गुणातीत' कहा गया है । ये दोनों पद ब्राह्मण परंपरा में ईश्वर के विशेषणों के रूप में अनेकों बार आते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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