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पार्श्व की मुख्य तीर्थकर वाली कथा के मध्य पार्श्व के नौ पूर्व भवों की कथाएँ अवान्तर कथाएँ बन कर इस काव्य में उपस्थित हुई हैं । ये नौ पूर्व भवों की अवान्तर कथाएँ पार्श्व के दसवे भव की कथा में अपना पूरा योगदान देती हैं । यह योगदान पार्श्व के चरित्र को दीप्त करने में फलीभूत हुआ है । पार्श्व के पूर्व जन्मों के कर्मों का क्षय, शनैः शनैः प्राप्त होते पुण्यो का संचय, आत्मा की निरन्तर होती शुद्धि ही पार्श्व को अपने दसवे भव में तीर्थ करपद तक पहुँचाती है । कथाप्रवाह और वर्णन :
इस महाकाव्य में पार्श्व जन्मोत्सव वर्णन, पार्श्व सौन्दर्य वर्णन, नारी सौन्दर्य वर्णन, प्रकृति वर्णन, युद्ध वर्णन आदि कितने ही प्रकार के वणन प्राप्त होते हैं पर ये सभी वर्णन कहीं भी कथा के प्रवाह में बाधा बन उपस्थित नहीं हुए हैं, अपितु इन वर्णनों का उपयोग कवि ने कथारस को पुष्ट करने में किया है। कथाप्रवाह को रुद्ध कर दे ऐसे लम्बे वर्णन इस काव्य में नहीं हैं । कथाप्रवाह और उपदेश :
प्रस्तुत महाकाव्य का प्रायः चौथा भाग उपदेशों से भरा पड़ा है । इस महाकाव्य के रचयिता श्री पद्मसुन्दर जैन साधु हैं । उनका उद्देश्य जैनों के २३वे तीर्थकर श्रीपार्व के चरित्र का उत्कष' बताना है । श्रीपद्मसुन्दर ने अपने काव्य के सम्पूर्ण छठे सर्ग में जैन धर्म के तत्त्वज्ञान को जैन परिभाषा में ही प्रस्तुत किया है जिसे समझना एक सधारण पाठक अथवा अजैनी के लिए अत्यन्त दुरुह एवं नीरस प्रतीत होता है। श्रीपद्मसुन्दर अश्वघोष व कालिदास आदि अन्य संस्कृत के कवियों के समान अपने काव्य में सरल, जैन परिभाषा से रहित, सर्वगम्य भाषा में जैनदर्शन का हार्द रख सकते थे । परन्तु कवि का अपने महाकाव्य में ठोस तत्त्व को अत्यन्त पारिभाषिक रूप में रखना एक साधारण पाठक के लिए जो रसानुभूति हेतु अथवा मनोरंजन हेतु काव्य का पठन करता है, आनन्ददायी अथवा सुखप्रद नहीं बन पाता । काव्य में पाठक की रसानुभूति के अन्य सभी तत्त्व मौजूद हैं जैसे कि हमने पहले देखा - सौन्दर्य वर्णन, प्रकृति वर्णन, युद्ध वर्णन, आदि । पर काव्य में उपस्थित तीसरे सर्ग का कुछ भाग, छठा व सातवा सर्ग बिल्कुल ही रसहीन हैं, इन सर्गो से साधारण पाठक न तो आनन्द प्राप्त कर सकता है और न ही उपदेश को समझ पाता है। कथा दोष :
महाकाव्य के तृतीय सर्ग के १८२ वे श्लोक में वर्णन ओया है कि सुर एवं असुरों ने पार्श्व के स्नात्रोत्सव की समाप्ति पर भगवान् को नाम पार्श्व रखा । देखिए :
आह्वयनू पार्श्वनामानमिति सर्वे सुरासुराः । ३, १८२, पूर्वार्ध । उसके पश्चात् हम देखते हैं कि चतुर्थ सर्ग के १३ वे श्लोक में भगवान् की माता अपने पुत्र का नाम 'पाश्व'' महान्धकार में अपनी शय्या के पास एक सर्प को देखकर रखती हैं-ऐसा वर्णन प्राप्त होता है -
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