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________________ ले लेता है। इस प्रकार नौ भवों तक कमठ ही मरुभूति के प्राण लेता चलता है । मरुभूति हर बार ऊँचा उठता जाता है और कमठ हर बार अधिक से अधिक वेदना को भुगतता है। अन्त मैं उसे नागराज धरणेन्द्र के उपदेश से ज्ञान-लाभ होता है और बह अपने भाई की शरण स्वीकार करता है, उससे क्षमा-याचना करता है। सव का शान्त मरुभूति जो अब तीर्थकर पार्श्व के रूप में होता है, वह अपने भाई की दुष्टता को विस्मृत कर उसे क्षमा प्रदान करता है। इस तरह कमठ को कई जन्मो से चली आ रही घोर यातना से छुटकारा प्राप्त होता है। . दोनों भाईयों के मध्य का यह वैर ही कथा का संघर्ष तत्त्व एवं कथा का मध्य बिन्दु है । सम्पूर्ण कथा इसी मध्य बिन्दु के इर्द-गिर्द लिपटी हुई है । इस बाह्य संघर्ष का निरूपण ही कथा में है जो बाह्य प्रसंगों से दिखाया गया है। इस काव्य में आन्तर संघर्ष का तत्त्व नहीं है । आन्तर सघर्ष सन्मनोवृत्तियों और असन्मनोवृत्तियों के बीच होता है । नायक तीर्थकर है - होने वाला है- अतः उसमें कवि ने एसा सघर्ष शायद उचित नहीं माना । फिर भी असन्मनोवृत्तियों को एक बाह्य पत्रिका रूप देकर कवि एसे संघर्ष का निरूपण कर सकता था । जैसे बुद्ध-मार का सघर्ष', शिव-काम का संघर्ष । ऐसा भी कवि ने नहीं किया है। अन्य पात्रों के चित्रण में भी ऐसे आंतर संघर्ष का निरूपण यहाँ नहीं है । मात्र कर्मसिद्धांत का दृष्टन्त प्रस्तुत करने के लिए, कवि ने, जन्मजन्मातरों तक दो व्यक्तियों के बीच कैसा बाह्य संघर्ष चलता है, यह प्रदर्शित किया है । कथा प्रवाह पार्श्व के पूर्वभवों की परंपराप्रसिद्ध कथा का कवि पद्मसुन्दर ने निराबाध गति से प्रस्तुत किया है । सम्पूर्ण कथा बड़े ही सीधे व सरल रूप से कही गई है । कथा के मध्य कोई भी तत्त्व एसा नहीं आता है जो पाठक के कथा-श्रवण अथवा वाचन में बाधक बना हो । पाठक शुरू से अन्त तक के पाव के भवों को कथा को मात्र दो ही सर्गों में पढ़ कर समझ जाता है । कवि का कथो को प्रस्तुत करना कहानी सुनाने जैसा ही लगता है । पाव के प्रथम भव की कथा अधिक चित्ताकर्षक व रोचक बन . पड़ी है । कथा बड़ी तेजी से आगे बढ़ती चलती है । आँखों के आगे से चलचित्र के समान ही एक-एक घटना गुजरती जाती है पर उस तेज रफ्तार में भी कवि यथास्थान सुभाषितों को जोड़ना भूलता नहीं है । उदाहरणस्वरूप प्रथम सर्ग का २६वाँ श्लोक 'उपासितोऽपि.........'; ४६वां इलोक तृष्णातरलितो धावन .. ......' एवं ४८वां श्लोक उपर्यपरि धावन्ति ........' आदि इलोक देखिए जो कथा को अलंकृत करने में सहायक सिद्ध हुए हैं । इसी प्रकार के अर्थान्तरन्यास वाले सुभाषित सम्पूर्ण काव्य की शोभा को चार चांद लगाये हए हैं । ये सुभाषित कहीं भी कथा के प्रवाह में बाधक नहीं बने हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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