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मिथ: प्रवृत्त तुमुलमुभयोः सेनयोरथ ।
शराशरि महाभीमं शस्त्राशस्त्रि गदागदि । ४, १५२ ।। प्रसेनजित् के बाणों से दिशाएँ ऐसे चमक उठीं मानों उल्का की ज्वालाओं से व्याप्त हो । बाणों के वेग और तीक्ष्णता को महसूस कराने वाला यह श्लोक देखिए
स्फुरद्भिर्निशितै : प्रासैः सायकैर्वेगवत्तरैः ।
उल्काज्वालरिवाकीर्णा दिशः प्रज्वलितान्तराः ।। ४, १५५ ।। युद्ध में मरे शत्रुओं का स्वर्ग की स्त्रियों के साथ सुरतक्रीड़ा का उत्सव प्राप्त करने का वर्णन कवि की अद्भुत कल्पनाशक्ति का द्योतक है
अस्य निस्त्रिंशकालिन्दीवेणीमाप्य परासवः ।
निमज्ज्य विद्विषः प्राप्ता: स्वर्गस्त्रीसुरतोत्सवम् ।। ४, १५६ ॥ दृष्टान्त के द्वारा राजा प्रसेन जित् के चक्रों से शत्रुराजा का चक्र कैसे नष्ट कर दिया गया, उसका वर्णन बड़ा ही सुन्दर प्रतीत होता है
चरस्य द्विषच्चक्र क्षणमापादित क्षणात् ।
मात्त ण्डकिरणैस्तीक्ष्णैर्हिमानीपटल यथा ।। ४, १५७ ।। युद्ध के रमणीय घनघोर चित्रण को प्रस्तुत करने वाले निम्न श्लोक देखिए
युद्ध में घोड़े की दुर्दशा का निम्न वर्णन तादृश हैरणेऽसिधारासघट्टनिष्ठ्याग्निकणानले । अनेकशरसयातसम्पातोल्कातिदारुणे ॥ ४, १६२ ।। अमिशास्त्रमथाधावन्नर्वन्तो गव दुर्वहाः ।
प्राक् कशाघाततस्तीक्ष्णा न सहन्ते पराभवम् ॥ ४, १६३ ॥ युद्ध में घायल और फिर भी उत्साही क्रोधित घोड़े का मर्मस्पर्शी यह चित्रण अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है
छिन्नै कपादोऽपि हयः स्वामिनं स्वं समुद्हन् ।
जातामर्षोऽभिशस्त्र स प्रधावन् युयुधे चिरम् ॥ ४, १६६ ॥ युद्ध के दर्दनाक चित्रण में भी कवि को कितनी हल्की फुत्की उपमाएँ सूझ पड़ी हैं। यहाँ कवि ने चर्बी, रक्त व मांस से कीचड़ बने हुए रणसागर में मन्दवेग वाले रथ के समूह को चंचल ध्वजाओ वाली नावों की उपमा से अलंकृत किया है
वसासृग्मांसपकेऽस्मिन् रणाब्धौ मन्दरंहसः ।
__ रथकट्या महापोता इव चेरुश्चलद्ध्वजाः ॥ ४, १६५ ॥ दूसरी उपमा देखिए-- राजा प्रसेनजित् अपने शत्रुसैन्य के मध्य घिरा हुआ भी परिवेष से घिरे हुए सूर्यबिम्ब सा ही शोभित हो रहा था
अथो यमनसैन्येन प्रसेनश्चार्कबिम्बवत् । प्रावृतः पारिवेषेण रेजे राजशिरोमणिः ॥ ४, १६७ ॥
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