________________
अन्त में कवि कहता है पार्श्व के शरीर का सौन्दर्य सब उपमानों से बढ़ कर थां
तद्वपुस्तच्च लावण्य तद्रूपं तद्वयः शुभम् ।
प्रभोः सर्वाङ्गसौन्दर्यम् सवौ पम्यातिशाय्यभूत् ॥ ४, ६६ ॥ पार्श्व के अंगोपांग का वर्णन कर कवि सम्पूर्ण सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहता है :
अभिषेक के पश्चात् अलंकृत पाव इन्द्रधनुष की कान्ति से शोभित बादल की तरह शोभायमान थे ।
सर्ने सम्भूयाऽभिषिच्य प्रभु ते भूषयांचक्रुरुच्चैः ।
दिव्यैर्माल्यभूषणैरेष गन्धैः रेजेऽम्भोदः शक्रचापांशुभिर्वा ।। ५, ९० ॥ पार्श्व के अतिशय सौन्दर्य वान् होने के कारण इन्द्र को अपने हजारों नेत्रों से भी तृप्ति नहीं मिलती थी
दृष्ट्वा सहस्रनयनः किल नाप तृप्ति
नेत्रैः सहस्रगणितैरपि सप्रमोदः ॥ ५, ९५ उत्तरार्ध । इस प्रकार कवि ने पार्श्व के सौन्दर्य वर्णन के समय उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, उत्प्रक्षा व व्यतिरेक का उपयोग किया है। इनमें भी विशेषतः तीन अलंकारों का प्रयोग किया गया है, वे है-उपमा, उत्प्रेक्षा व अतिशयोक्ति अलंकार ।
नेत्रों की कमल से, मुख की चन्द्रमा से, नासिका के छिद्रों की लक्ष्मी-सरस्वती के लिए बनाई गई दो नालियों से, ग्रीवा की शंख से, बाहुओं की कल्मदुम से, उरुकी कीर्तिम्तम्भ आदि से दी गई उपमाए' संस्कृत काव्यों की अति प्रचलित उपमाएं हैं । युद्धवर्णन
कवि पद्मसुन्दर ने युद्ध वर्णन के समय आँखो के सम्मुख युद्ध का बहुत ही सजीव चित्र प्रस्तुत किया है । पाठक उस ओजपूर्ण चित्रण को पढ़ते समय काफी उत्साहित हो जाता है मानो युद्ध से संबन्धित कोई चलचित्र उसकी आँखों के सामने से गुजरता चला जा रहा हो ।
युद्ध का सम्पूर्ण वर्णन अनुष्टुभ् छन्द में ही हुआ है । स्रग्धरा और शालिनी छन्दो का प्रयोग मात्र दो ही स्थानों पर किया गया है । उपमा, रूपक, उत्पेक्षा, अतिशयोक्ति व अर्थान्तरन्यास अलंकारों के प्रयोग से कवि ने काफी सुन्दर चित्र उपस्थित कर दिये हैं।
युद्ध स्थल पर पहुँच कर दोनों पक्षों की सेनाएँ अपनी-अपनी स्थिति जमाती है और तब दोनों सेनाओं के युयुत्सु सुभट, युद्धसाहस को बढ़ाने वाली रणभेरियों की महान ध्वनि से आकाश को गुंजा देते हैं । हाथियों की चिंबाड़, अश्वों की हिनहिनाहट और आतोद्य आदि बाजों की ध्वनि रही सही कमी को भी पूरा कर देती है । देखिए
गजानां बृहितैस्तत्र हयहेषारवैभृशम् । । रणातोद्यरवैः शब्दाडम्बरो व्यानशेऽम्बरम् ॥ ४, १३५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org