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पार्श्व के मस्तक की मन्दार पुष्पों की माला की शोभा हिमालय के शिखर के अग्रभाग पर गिरती गंगानदी के समान थी ( सर्ग ४, ४९ ) ।
उस प्रभु का ललाट अर्धचन्द्र के समान था और वह ललाटपट ऐसा लगता था मानो लक्ष्मी देवी के पट्टाभिषेक के लिए आसन कल्पित किया गया हो (४, ५०)।
भौहों की कल्पना अत्यन्त सुन्दर बन पड़ी है । कवि कहता है
पार्श्व की घने नीलवर्णवाली सुन्दर और सुषम दोनों भौहें कामदेवरूप हिरन को पकड़ने के लिए फैलाई हुई दो जालों के समान लगती थीं
भ्रवौ विनीले रेजाते सुषमे सुन्दरे विभोः ।
विन्यस्ते वागुरे नूनं स्मरणस्येव बन्धने ॥ ४, ५१ ।। नेत्रों का वर्णन भी अति सुन्दर किया गया है । आँखों की काली कीकी की उपमा पर सेव नेत्रों की चंचलता की उपमा पवन से कम्पायमान नीलकमल से की गई है।
नेत्रे विनीलतारेऽस्य सुन्दरे तरलायते ।
प्रवातेन्दीवरे सद्विरेफे इव रराजतुः ।। ४, ५२ ॥ पार्श्व के मणिजटित कुण्डलों से अलंकृत कान ऐसे शोभित थे मानो उन कानों ने सूर्यचन्द्र के दो गोलों को अपने तेज से जीत कर बाँध लिया हो । (४, ५३)
सो नतों की शोभा से उसकी मुखश्री ऐसी शोभायमान प्रतीत होती थी मानों लाल कमल का पंखुडी पर रखे गये हीरा की पंक्ति हो (४ पता।
उसकी नासिका के दो छिद्र सरस्वती और लक्ष्मी के प्रवेश के लिए बनाई गई दो नालियों की भांति ये ( ४, ५६ )।
उसकी ग्रीवा शंख जैसी थी और उसकी गर्दन पर उपस्थित तीन लकीरे तीनों लोकों की श्रा को पराजित करने के कारण थीं ( ५, ५७) ।
उसके कन्धे लक्ष्मी और सरस्वती के पुत्रतुल्य थे (४, ५९ ) ।
पाई के हाथ की अंगुलियाँ अतीव विस्तृत, लाल नाखुनों से अंकित थीं एवं वे भगवान् के दशावतारचरित की द्योतक दीपिकाओं की तरह सुशोभित थीं।
पाश्व' की नाभि निझरणी के समान शोभित थी (४, ६२) ।
उसका जघनस्थल शरद्कालीन बादलों से घिरे हुए गिरि के नितम्ब की शोभा को धारण करता था । ४-६३. ।
उस पाश्व के उरु कामदेव और रति दम्पती के कीर्तिस्तम्भ थे। ४-६४ ।
उसकी दोनों अँघाए' विजयलक्ष्मी के झुले के खम्भे की भांति थीं और दोनों चरण अपनी कान्ति से स्थलकमल को भी जीत लेते थे - ४,६५ ।
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