________________
अथवा
-
છું.
निसर्गात् सुन्दर जैनं वपुर्भूषणभूषितम् ।
कवेः काव्यमिव श्लिष्टमनुप्रासैर्बभौतराम् ॥ ३, १९४ ॥
सालङ्कारः कवेः काव्यसन्दर्भ इव स व्यभात् ॥ ३, १९६, पूर्वार्ध ॥ पार्श्व की शैशवावस्था की गतिविधियों का चित्रण : विभिन्न उत्प्रेक्षाओं से शिशु के मुग्ध हास्य का चित्रण करता हुआ कवि लिखता है
एवं
-
शिशु की तोतली बोली माता-पिता के मन को मुदित करती थी उसका वर्णन कवि ने इस प्रकार किया है
श्रियः किं हास्यलीलेव कीर्तिवल्ले: किमङ्कुरः ।
मुखेन्दोश्चन्द्रिका वाऽस्य शिशोर्मुग्धस्मितं बभौ ।। ४, १८ ॥
शिशु के ‘हुँ' 'हुँ' ध्वनि के साथ, घर के आँगन में चलना कैसा सजीव चित्र आँखों के सम्मुख उपस्थित कर देता है, वह देखिए
या जिनार्भस्य वदनादभून्मन्मनभारती
श्रोताञ्जलीभिस्तां पीत्वा पितरौ मुदमापतु: ।। ४, १९ ।।
कवि ने पार्श्व की शोभा की उपमा चन्द्रमा से अधिकांशतः की है। दो उदाहरण देखिएएक में कवि तारागणों के मध्य चन्द्रमा की भाँति देवकुमारों के मध्य पार्श्व की शोभा को बतलाता है तो दूसरी जगह वह कहता है कि पार्श्व तरुणावस्था को प्राप्त कर इस प्रकार शोभित थे जैसे चन्द्रमा सुन्दर होने पर भी शरदकालीन पूर्णिमा को प्राप्त कर अधिक शोभा को प्राप्त होता है । क्रमशः देखिए
Jain Education International
अब पा सजाया गया हैं
गतः स्खलत्पदैः सौधाङ्गणभूमिषु सञ्चरन् । आबद्धकुट्टिमास्वेष बभौ सुभगहुङ्कृतिः ॥ ४, २० ॥
1
मध्ये सुरकुमाराणां ताराणामिव चन्द्रमाः ।
शुशुमे भगवान् पाश्वा रममाणो यदृच्छया ॥ ४, ४२ ।। ।
विभुर्बभासे सुतरामवाप्य तरुणं वयः ।
शशीव कमनीयोऽपि शारदीं प्राप्य पूर्णिमाम् । ४, ४४ ।।
के नख - शिख के सौन्दर्य को देखिए जिन्हें विभिन्न उपमानों द्वारा
काले कुजित केशों वाला प्रभु पाइर्म का मस्तक मणिमय अञ्जन गिरि के शिखर की भांति था (देखिए - सर्ग ४ ४८ ) ।
प्र. ६
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org