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के सान्दय की अभिव्यक्ति के लिए परम्परारूढ़ उपमानों का प्रयोग किया है। उपमानों के प्राचीन होने पर भी उनका प्रयोग कलात्मक ढंग से किया है जिसके फलस्वरूप सौन्दर्यचित्र मनोहर व आकर्षक बन पड़े हैं। (आन्तर सौन्दर्य के अन्तर्गत जो चरित्रगत गुण होते हैं, जैसे शौर्य, प्रताप, बल, इन्द्रियसंयम, क्षमा, अहिंसा, कष्टसहिष्णता, परदःखकातरता, कर्तव्यपरायणता व त्याग आदि - उनका वर्णन पाव के चरित्र-चित्रण में हम कर चुके हैं अत: यहाँ मात्र उसके शैवव व कुमारावस्था के बाह्य सौन्दर्य पर ही दृष्टिपात करेंगे) ।
पार्श्व जब उत्पन्न हुए, उस समय के उनके सौन्दर्य का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि वह वालक बालसूर्य की भांति प्रकाशमान था -
ज्ञानत्रयधरो बालो बालार्क इव दियुते ॥ ३, ६९, पूर्वार्ध ।।
पाव का शरीर इस कदर सुगन्धित था कि उनके शरीर पर गिरती हुई (स्नान की) सुगन्धित जलधारा भा मानो शरीर की सुगन्धि से निर्जित, लज्जित होकर अधोमुखी हो गिरती हो ऐसा प्रतीत होता था :
गन्धाम्बुधारा शुशुभे पतन्ती जिनविग्रहे तदङ्गसौरभेणेव निर्जिताऽऽसीदधोमुखी ।। ३, १७१ ।।
पार्श्व के नेत्र कमल के समान स्निग्ध थे
___ इन्दीवरनिभे स्निग्धे लोचने विश्वचक्षुषः ।। ३, १८७, पूर्वार्ध ।
पार्श्व के मुख की शोभा अद्वितीय थी जिसे देखने मानो सूर्य और चन्द्र ही आ गये हो :
द्रष्टु तन्मुखजां शोभा पुष्पदन्ताविवागतौ ।। ३, १८८, उत्तरा ।। पार्श्व की बाहुओं एवं भुजाओं का वर्णन कवि ने परम्परागत रूप से अतिशयोक्तियुक्त किया है पर वह वर्णन बहुत सुन्दर बन पड़ा है । भुजाओं की अथवा बाहुओं की अतिशय लम्बाई का वर्णन परम्परारूढ़ वर्णन के अन्तर्गत आता है । प्रायः संस्कृत के सभी कवियों ने भुजा एवं बाहु का लम्बा होना शोभनीय एवं पुण्यशाली व्यक्ति का चिह माना है
आजानुबाहोर्यद् वाहुद्वयं केयूरमण्डितम् ।।
तभूषणाङ्गकल्पद्रुशाखाद्वैतमिव व्यभात् ॥ ३, १९० ॥ स्नान के पश्चात् पार्श्व अलंकारों से युक्त इस प्रकार शोभित थे जैसे बादलों के समूह से बाहर निकला हुआ शरद का चन्द्रमा अपनी किरणों से शोभित होता है :
स्नानानन्तरमेवासौ बभासे भूषणैविभुः ।।
सुतरां निर्गतौऽ भ्रौघाच्छरदिन्दुरिवांशुभिः ॥ ३, १९३ ।। कवि पार्श्व के शारीरिक सौन्दर्य की उपमा अलंकार युक्त काव्य से देता हुआ
कहता है:
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