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(देखें-नैषधचरित, २ का ८० बां श्लोक) । दूसरी कल्पना में कवि कहता है - अपनी उड़ती हुई पताकाओं से बह नगरी वाराणसी ऐसी शोभित हो रही थी मानो नृत्य कर रही हो -
चलन्तीभिः पताकाभि नृत्यन्तीव पुरी बभौ ।
पटवासैरभिव्याप्तमन्तरिक्षं सुसंहौः ॥ ४, ६ ॥ उस नगरी के भवन इतने ऊँचे थे और उन भवन में से इतना अधिक कृष्णागुरुधूप का धुआँ निकलता था कि मयूर उस धुएँ को बादल समझ नाचने लगते थे और अपनी केकारख से आकाश को गँजा देते थे -
यस्यां कृष्णागुरूद्दामधूपधूमविवर्तनः ।
घनभ्रान्त्या वितन्वन्ति केका नृत्यकला पिनः ।। ४, ३ ।। उप नगरी में हर समय इतनी अधिक संगीत की ध्वनि फैली रहती थी कि वह ध्वनि दिग्गजों के कानों को गुजा कर मानो उन्हें बहरा ही बना देती हो -
उद्यन्मङ्गलसङ्गीतमुखध्वानजडम्बरैः ।
दिग्दन्तिकर्णतालाश्च व्याप्य यैर्बधरीकृताः ।।४, ४ ।। इसी प्रकार की संगीत की ध्ववि अलकापुरी में भी गूंजती थी । देखिए - मेघदूत, उत्तरमेघ के श्लोक नं.१ के इन शब्दों में .... “संगीताय प्रहतमुरजाः स्निग्धगम्भीरघोषम्" । उस नगर की गलियां पुष्पों के अलंकरण से शोभित थीं और उस नगर के प्रत्येक घर के बड़े बड़े बुलन्द द्वार उन्नत तोरणों से युक्त थे व उच्च कलशों से शोभायमान थे । देखिए
कृतपुष्पोपहाराश्च पुरवीथ्यो विरेजिरे ।
आबद्धतोरणो गोपुरं कलशोछितम् ॥ ४, ५ ॥ आदि । वाराणसी नगरी के निवासियों का वर्णन :
वाराणसी नगरी के निवासीजन संस्कृत भाषा बोलते थे तथा वे अपने कर्मों से देवो के समान थे । वे "चन्दनचर्चितगोत्र" थे। वे धर्मिष्ठ व आनन्दी थे। वहाँ की स्त्रियाँ अति मनोहारी थी। वहां के लोगों ने अपने कार्यों से स्वर्गलोक को भी हीन बना दिया था। वे लोग दान करने के साथ साथ उपभोग करने वाले भी थे, उत्सव मनाने वाले थे तथा विद्वत्तापूर्ण बातें करने वाले थे। वहां के निवासी अत्यन्त समृद्ध, गुणों के आगार एवं रसिक थे। वे अत्यन्त निर्दोष थे । अव्यवस्था का जनता में नामोनिशान तक नहीं था । नागरिकों के लिए वहाँ किसी भी प्रकार के दण्ड का विधान नहीं था कारण वहाँ की
। लड़ाई झगड़ों से सर्वथा दूर थी तथा विषयवासनाओं पर भी उनका दमन था। वहाँ के नागरिक आनन्द से पूर्ण थे, उत्साही थे, प्रसन्न थे, उनमें से कोई भी दुःखी नहीं था। वहां के योगियों को ब्रह्मशान में ही आनन्द प्राप्त होता था ।
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