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________________ कवि की वर्णन शैली नगर-नगरी एवं नगरनिवासियों का वर्णन महाकाव्य की परम्परा के अनुसार कवि पद्मसुन्दर ने भी अपने महाकाव्य में नगरों का वर्णन, नगरनिवासियों का वर्णन, जम्बूद्वीप का वर्णन, सागर एवं पर्वतों का वर्णन किया है। वर्णन के विस्तार की दृष्टि से सर्वप्रथम वाराणसी नगरी का वर्णन (३, ५-१२, ४, २-९) आता है । इसके पश्चत् तत्पुराण नगर का वर्णन (२, २-४) हुआ है और तीसरे स्थान पर पोतनपुर नामक नगर का वर्णन (१, ४-६) आता है। इनके अतिरिक्त तिलकनगर (१, ५२), शुभङ्करा नगरी (१, ६७-६८); कूपकट नामक नगर (६, २): काशी प्रदेश (३, ४); भारतवर्ष (३, ३) आदि का मात्र नाम ही निदिष्ट हुआ है। जम्बूद्वीप का वर्णन १, ३, २, १-२; ३, १-२ - इन सर्गों के इन श्लोकों में हुआ है। इसी प्रकार पुष्करद्वीप का वर्णन १, ५९ में हुआ है । क्षीरसागर का वर्णन ३, १२७-१२८; ३, १२९ व १४४, ५, ९४; ७, ६१ में हुआ है । ये सभी वर्णन इतने अधिक संक्षिप्त हैं कि हम उन्हें अलग से नहीं लिख सकते ।। सुमेरुपर्वत का वर्णन ३-११५, १५४, १५५ व १५६ में हुआ है। हिमवन्त पर्वत का वर्णन ३, १ मैं हुआ है। हेमगिरि का वर्णन १, ६२ में; चक्रवाल पर्वत का वर्णन ३, १७ में: मन्दारपर्वत का वर्णन ३, ११४ में व वैताब्य पर्वत का वर्णन ३, १२७१२८ में हुआ है । इन वर्णनों का हम वर्णन करने में असमर्थ हैं कारण कि अधिकांशतः पर्वतों का वर्णन, वर्णन ना होकर मात्र नामनिदे शीकरण ही है। वाराणसी नगरी : कवि ने वाराणसी नगरी का वर्णन अत्यन्त संक्षिप्त किन्तु बहुत ही सुन्दर शब्दों में किया है। सर्वप्रथम कवि उस नगरी की शोभा को वर्णित करते हुए कहता है कि वह नगरी स्वर्ग की नगरी अमरावती के समान शोभित थी - तत्र वाराणसीत्यासीत् नगरीवाऽमरावती ।। ३, ५, पूर्वार्ध ।।। उसके पश्चात् कवि नगरी की एक-एक विशेषता का वर्णन उत्प्रेक्षाओं, अतिशयोक्ति, प्रान्तिमान व उपमा के द्वारा करता हुआ अपने उपर्युक्त कथन की पुष्टि करता है । वह कहता है - वह नगरी ऊँची-ऊँची पताकाओं से शोभित हो रही थी । ऐसी प्रतीत होता था मानो वह अपनी उन ऊँची-ऊँची पताकाओं द्वारा कौतुक से उत्कण्ठित लोगों का आहाहन कर रही हो । उत्तम्भितपताकाभिर्बभ। वाराणसी पुरी । सा ताभिरावयन्तीव कौतुकोत्कण्ठितान् नरान् ॥४, २ ।। श्री हर्ष के नैषधचरित के द्वितीय सर्ग में उल्लिखित कुण्डिनपुर वर्णन में भी गगनस्पशी गृहो की उन्नत पताकाओं का वर्णन, दूसरे प्रकार की कल्पना के साथ प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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