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इधरै पूर्व दिशा में थोडी छोडी हुई सूर्य की किरणे चमक रही हैं उधर सरोवरों में सारसों की आवाज सुनाई दे रही है । दूसरा चित्र -
इतश्च कोकमिथुनं निशा विरहबिक्लवम् ।
कलैरामन्द्रनिःस्वामित्रमभ्यर्थयत्यलम् ।। ३, ३९ ॥
इधर चक्रवाक मिथुन जो रात्रि के विरह से व्याकुल है अपनी मन्द मन्द मधुर ध्वनि से पर्याप्त रूप में अपने मित्र (सूर्य) से प्रार्थना कर रहा है । सूर्यास्त का वर्णन -
स्नानाम्भसा प्रवाहोघे हंसो हंस इवाSsबभौ ।।
तरन् मन्थरया गत्या जडिमानं परं गतः ।। ३, १५९ ।। स्नान के जल के प्रवाह समुदाय में हंसपक्षी सूर्य की तरह शोभित था तथा धीमी गति से तैरता हुआ अत्यन्त जडभाव को प्राप्त हो गया । प्रातःकाल का वर्णन -
इस वर्णन में प्रकृति का मानवीयकरण रूप दिखालाई देता है । प्रात:काल अपने विकसित कमलपुष्यों के अञ्जलिपुटों से मानो महारानी को जगा रहा हो, एसी कल्पना कवि ने की है
निद्रां जहीहि देवि ! त्वमिति जागरयत्ययम् ।
विभातकाल: प्रोत्फुल्लपद्माञ्जलिपुटैरिव ॥ ३, ३६ ॥ तारों का वर्णन -
सवनाम्बुनिमग्नास्तास्तारास्तारतरातः । गलज्जललवा व्योम्नि बभुः करकसन्निभाः ॥ ३, १६० ॥
कवि कहता है, स्नात्रजल में डूबे, गिरते हुए पानी की बूद वाले तथा अत्यन्त उज्ज्वल प्रकाश वाले तारे आकाश में ओलों के सदृश चमकते थे । अन्य चित्रण देखिए -
पयःपूरै विलुप्तांशुप्रतापं चण्डरोचिषम् । तारागणः शशिभ्रान्त्या तमसेवीत् परिभ्रमन् ॥ ३, १६१ ।।
पानी की बाढ़ से जिसकी किरणों का प्रताप नष्ट हो गया है उस सूर्य को चन्द्र समझ कर तारागण उसकी परिक्रमा करते हए सेवा कर रहे थे ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कवि पद्मसुन्दर ने अपने इस महाकाव्य में प्रकृति के कछ चित्रों को अत्यन्त सुन्दर व चित्ताकर्षक बनाया है और कुछ चित्रों का बहुत ही साधारण ढंग से वर्णित किया है । इति ।
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