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यस्य पुरस्ताच्चलदलहस्तै नृत्यमकार्षीदिव किमशोकः ।
भृङ्गनिनादैः कृतकलगीत: पृथुतरशाखाभुजवलनैः स्वैः ॥ ६, ७
वायु के धीरे-धीरे, सहज स्वाभाविक रूप में बहने का वर्णन कवि ने बड़े ही ढंग से किया है, देखिए—
सरः शीकर वृन्दानां वोढा मन्द ववौ मरुत् ।
प्रफुल्लपङ्कजोत्सर्प सौरभोद्गारसुन्दर: ।। ३, ४२ ।।
तालाब के बिन्दु समुदाय को वहन करने वाला मन्द मन्द पवन बहने लगा, जो पवन कमल पुष्प की उत्कट सुगन्धि को फैला कर सुन्दर बना था । वायु बहने का अन्य चित्रण भी बहुत सरल एवं सुन्दर है, देखिए
मरुत्सीकर संवाही पद्मखण्डं प्रकम्पयन् ।
aat मन्दं दिशः सर्वाः प्रसेदुः शान्तरेणवः ॥ ३, ७० ॥
कवि कहता है कि उस समय सम्पूर्ण दिशाएँ शान्तधूलि वाली थीं तथा जलबिन्दुओं को अन्य स्थान पर ले जाने वाला, कमलखण्ड को कम्पित करने वाला वायु धीरे धीरे बह रहा था ।
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कवि ने वर्षा होने से पूर्व के घनघोर वातावरण, बिजली के कड़कने और फिर मुसलाधार वर्षा के बरसने का अत्यन्त सुन्दर एवं स्वाभाविक चित्रण प्रस्तुत किया है । यहाँ प्रकृति का भयानक रूप प्रकट हुआ है । कवि ने प्रकृति की भयानकता को प्रकट करने वाले अत्यन्त सारगर्भित शब्दों का चयन किया है । ये शब्द साहित्य में 'शब्दार्थसंपृक्ति' (sound follows the sense) का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । 'धाराधरास्तडित्वन्तः ' एवं 'वर्षति स्म घनाघनः' आदि शब्द की ध्वनि ही प्रकृति, वर्षा के समय कैसी हो गई है उसके उस रूप को दिखाती है । क्रमशः देखिए
प्रादुरासन्न भौभागे वज्रनिर्घोष भीषणाः । धाराधरास्तडित्वन्तः कालरात्रेः सहोदराः ॥ ६, ४८ ॥
कादम्बिनी तदा श्यामाञ्जनभूधरसन्निभा । व्यानशे विद्युदस्युग्रज्वालाप्रज्वलितम्बरा ।। ६, ४९ ॥
नालक्ष्यत तदा रात्रिर्न दिवा न दिवाकरः । बभूव धारासम्पातैः वृष्टिर्मुशलमांस लै: ।। ६, ५० ॥
गर्जितैः स्फूर्जथुध्वानैः ब्रह्माण्ड स्फोटयन्निव । भापयंस्तडिदुल्ला सैर्वर्णति स्म घनाघनः ॥ ६, ५१ ॥
प्रकृति के अति भयानक रूप को देखने के पश्चात् प्रकृति के सौम्य सरल रूप को भी देखिए, जिसका वर्णन बडी ही स्वाभाविकता के साथ किया गया है
इतः प्राच्यां विभारित स्म स्तोकाद् मुक्ताः करा रवेः । इतः सारससंरावाः श्रयन्ते सरसीष्वपि ॥ ३, ३८ ॥
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