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कवि पद्मसुन्दर के प्रकृतिचित्रण पर विहंगम दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है क पद्मसुन्दर का मन प्रकृति के चित्रण में अधिक रमा नहीं है । उन्होंने सभी वर्ण्य विषयों पर अपनी कलम चलाने की चेष्टा तो की है पर वे बहुत बारीकी और सुन्दरता से उन वर्ण्य - चित्रों को सजा नहीं पाये । अतः हम यहाँ उनके कुछ सुन्दर चित्रों को ही प्रस्तुत कर रहे हैं, अन्य चित्रों का नाम निदेश तो ऊपर कर ही दिया गया है ।
कवि ने अपने काव्य के
प्रथम सर्ग में हाथी की स्वाभाविक गतिविधियों व चेष्टाओं का एवं उसकी अपनी जीवनसंगिनी प्रियतमा हथिनी के साथ की विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाओं का अत्यन्त सूक्ष्मग्राही व हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। देखिए
वन्यद्रुमान् विदलयन् निजकर्णतालैर्गुञ्जन्मधुत्रतगणं कटदानलुब्धम्
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आस्फालयन् विहितष्ट हितनाद एष शिश्लेष तत्र करिणीं करलालनेन ।। १, २९ ॥
दूसरा उदाहरण :
कान्तया स विचचार कानने सल्लकीकवलमर्पितम् तया ।
तं चखाद जलकेलिषु स्वयं तां सिषेच करसीकर गंज: ।। १, ३० ॥
प्रथम उदाहरण में हाथी का वन के वृक्षों को नष्ट करना, गण्डस्थल के दानवारि में लुब्धक बने और गुंजार करते भ्रमर समुदाय को कर्णप्रहार से ताडित करना और तब मानों अपने मार्ग के सभी अवरोधों को दूर कर, विजय की घोषणा के रूप में गर्जना करता हुआ वह हाथी अपनी शुण्डा से, अपनी प्रियतमा का आलिंगन करता हो, इस रूप में चित्रित किया गया है ।
दूसरे उदाहरण में कवि ने हाथी की सरल चेष्टा का चित्रण कर हाथी के शान्त प्रेममय जीवन का चित्र आंका है । कवि कहता है कि वह हाथी अपनी प्रियतमा हथिनी के द्वारा दिये गये सल्लकी घास के ग्रास को खाता था और जलक्रीडा के समय अपनी सूंड के जल से वह अपनी प्रियतमा का सिंचन करता था ।
इसी प्रकार का प्रकृतिचित्रण कुमारसंभव के तृतीयसर्ग के ३७वें श्लोक में भी किया गया है जहाँ हथिनी बड़े प्रेम से कमल से सुगन्धित जल को अपनी सूड द्वारा अपने प्रेमी हाथी को पिलाती है आर चकत्रा अपनी चकवी को आधी कुतरी हुई नाल को भेंट करता चित्रित किया गया है
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ददौ रसात्पङ्कजरेणुगन्धि गजाय गण्डूषजलं करेणुः । अपभुक्तेन बिसेन जायां संभावयामास रथाङ्गनामा ॥
अब प्रकृति के संवेदनात्मक रूप के दर्शन कीजिए । अशोकवृक्ष अपनी विभिन्न भङ्गीमाओं वाली चेष्टाओं के साथ ऐसा शोभित हो रहा था मानो पार्श्व भगवान् के सम्मुख नृत्य प्रस्तुत कर रहा हो । पार्श्व भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है । सभी देव उनकी स्तुति करने आ पहुँचे हैं। प्रकृति भी हर्षित है और विभिन्न प्रकार से अपने मन के भावों को प्रकट कर रही हैं, उसी समय की अशोकवृक्ष की चेष्टाएँ हैं जिन्हें कवि उत्प्रेक्षा द्वारा प्रस्तुत करता है
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