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सद
राजा प्रसेन जन धीर एवं वीर गुग से सम्पन्न हैं । राजा यमन का दस जब उनकी पुत्री के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजता है तब प्रसेन जित् क्रोध से लाल हो जाते हैं । उस समय के उनके शब्द उनके क्रोध को और उनकी वीरता को प्रकट हैं -
मम धीरस्य वीरस्य पुरतः समराङ्गणे ।।
कथं स्थास्यति गन्ता वा यमनो यमशासनम् ।। ४, ८३ ।। इसके साथ ही युद्ध के समय उनके वीरता से लड़ने का वर्णन कवि जिन सुन्दर श्लोकों में करता है, उन्हें भी देखिए । प्रत्येक श्लोक उनके वीर योद्धा होने का द्योतन करता है ।
अत्यन्त उत्साह से लड़ते हुए प्रसेनजिन के बाण इधर-उधर ना जा, सीधे शत्रुओं के हृदयों को ही छेदते थे -
क्षोणीशस्य प्रसेनस्य च परदलनाभ्युद्यास्यापि चापानिर्यातो बागवारः समरभरमहाम्भोधिमन्थाचलस्य । नो मध्ये दृश्यते वा दिशि विदिशि न च क्वापि किन्तु व्रणाः
शत्रूणामेव हृत्सु स्फुटमचिरमसौ पापतिर्दूरवेधी ।। ४, १५० ।। राजा प्रसेनजित के शौर्य को दर्शाने वाले अन्य श्लोक देखिए
अस्य निस्त्रिशकालिन्दीवेणीमाप्य परासवः । निमजज्य विद्विषः प्राप्ता स्वर्गस्त्रीसुरतोत्सवम् ।। ४, १५६ ॥
अन्य
चक्ररस्य विषचक्रं क्षयमापादितं क्षणात ।
मार्तण्डकिरणैस्तीक्ष्णैर्हिमानीपटलं यथा ।।४, १५७ ।। शत्र सेना से घिरे हुए वे प्रसेनजित् सूर्यबिम्ब की शोभा को धारण करते थे- इसका वर्णन कवि ने बहुत सुन्दर उपमा में किया है, देखिए
अथो यमनसन्येन प्रसेनश्चार्कबिम्बवत ।
पावतः परिवेषेण रेजे राजशिरोमणि: ।। ४, १६७ ।। माने पर राजा प्रसेनजित् सुयोग्य वृद्ध मन्त्रियों से सलाह लेना भी जानते हैं और उनका समुचित भादर कर उनके उपदेश को ग्रहण कर उस पर अमल भी करते हैं ।।
वे अत्यन्त विनयी भी हैं । गुणवानों के गुणों का कीर्तन करने में उन्हें जरा भी कोच अनुभव नहीं होता । युद्ध के समय श्रीपार्श्व की अद्भुत् वीरता और अलौकिकता
न कर वे अत्यन्त आदर के साथ उनके गुणों का संकीर्तन और स्तति करते हैं । तत्पश्चात् उन्हे आदर के साथ अपने घर ले जाते हैं । उनका श्रेष्ठ सरकार करते हैं और तब अन्त में, उनके गुणों पर मुग्ध होकर, उनके साथ अपनी इकलौती, रति के समान
रूपवान कन्या का विवाह कर धन्य हो जाते हैं। उनके स्वयं के ही शब्दों को और जहां उन्होंने कहा है - सज्जनों के सान्निध्य से अन्य व्यक्ति निश्चितरूपेण धन्य
हो जाते हैं -
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