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________________ २४ की नासिका के अप्रभाग तक आ गया तब नागराज धरणेन्द्र अपनी पत्नी के साथ प्रकट हुए । उन्होंने मेघमाली को जन्म-जन्मान्तरों की वैर रूपी निद्रा से जगाया और कहा ओ: पाप ! स्वामिनो वारिधारा हारायतेतराम् । तवैव दुस्तरं वारि भनवारिनिधेरभूत ॥ ६, ५६॥ यही जलधारा स्वामी के गले का हार बन गई, अर्थात् उनके गले तक पहुंच गई और तेरे लिए यही जल की धारा संसारसागर का दुस्तर जल बन गई है । यह सुनकर मेघमाली नींद से जागा और श्रीपार्श्व की शरण में आकर उसने उनसे क्षमायाचना की । और इस तरह कमठ अपने वैरभाव को गलत् समझ जन्मों के बन्धन से मुक्त हुआ । कम का सम्पूर्ण चरित अवगुणों से युक्त होते हुए भी कथा के विकास में सहायक है । राजा अरविन्द : राजा अरविन्द भारतवर्ष के सभी नगरों में अधिक समृद्धि वाले तथा अत्यन्त शोभायमान वैभवपूर्ण पोतन नामक नगर का शासन करते थे । वे न्याय में कुशल, शत्रु जय, विषयवासनाओं से रहित, राजविद्या में निपुण, राजशक्तियों ( प्रभुत्व, मन्त्र व उत्साह ) से युक्त, सामदानादि में दक्ष, संधि आदि षड्गुण-विधान में चतुर, शान्तिपरक, दानी और धर्मात्मा प्रकृति के थे । उनकी प्रजा भी उन्हीं के समान गुणों से सम्पन्न थी । वहाँ के लोग दूसरों के ही गुणों की प्रशंसा करते थे, अपने गुणों के वर्णन में सदा मौन रहते थे । वे पराक्रमी होते हुए भी शान्तिप्रिय, दानी, न्यायप्रिय, अनुशासनप्रिय, धर्माचारी, विचारशील, विवेकी तथा धनाढ्य थे । राजा अरविन्द अत्यन्त न्यायप्रिय थे। विषयवासनाओं में कामान्ध लोगों के लिए उनके मन में ना कोई स्थान था और ना ही उनके राज्य में ऐसे व्यक्तियों के लिए कोई जगह थी । उदाहरण के रूप में हम देख सकते हैं कि अपने मन्त्री कमठ के दुराचरण की खबर पढ़ते ही वे उसे अपमानित कर देश से निष्कासित कर देते हैं । एक बार, महल की छत पर बैठे हुए राजा अरविन्द को शारदी बादल का वायु के झोके से छिन्न-भिन्न होना दिखलाई देता है। यह दृश्य राजा को संसार की असारता बताने और धर्म के प्रति प्रेरित करने के लिए पर्याप्त होता है और राजा दानादि कर, पुत्रों को राज्य सौंप धर्मारूढ़ हो जाते हैं। उसके पश्चात् वे राजा सम्मेतशिखर की यात्रा हेतु निकलते हैं और वहाँ कुब्जक वन में अपनी ध्यानावस्था तोड़ने का प्रयत्न करते हुए मरुभूति ( अपनेमंत्री ) को उसके दूसरे भव में हाथी के रूप में देखकर पहचान जाते हैं और उसे धर्मोप्रदेश द्वारा गृहस्थ धर्म में स्थिर करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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