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रूप में तैयार होता दिखलाई देता है। इसी के फल स्वरूप अपने नौ मवों की आराधना के परिणामस्वरूप मरुभूति का जीव अन्त में तीर्थंकर के रूप में प्रकट होता है।
श्रीपार्श्व :
___ पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र हैं। वे जैनों के तेइसवें तीर्थ कर हैं । अत: उनके जन्ममहोत्सव, जातकर्म व स्नात्रमहोत्सव आदि संस्कार दिक्कुमारयों व देवताओं द्वारा सम्पन्न होते हैं । शैशवावस्था से ही पार्श्व सभी विद्याओं में निपुण थे। उन्होंने बिना किसी गुरु की मदद के समस्त विद्याओं को स्वयं प्रकट कर दिया था। यवा होने पर उन्होंने अपने पिता के राज्यकार्य में मदद करनी प्रारम्भ की ।
कवि ने पाच को एक वीर योद्धा के रूप में उपस्थित किया है। उन्हें अपनी वीरता पर पूरा भरोसा भी है । राजा प्रसेन जित् द्वारा महाराजा अश्वसेन को युद्ध के लिए बुलाने पर जब महाराजा प्रस्थान करने लगते हैं तव पाव उन्हें जाने से रोकते हैं। इस समय के उनके शब्द सुनिये. सुते सति मयि स्वामिन्न प्रस्थानं तवोचितम् ।
रवेर्बालातपेनापि तमः किं न विहन्यते ? ॥ ४, १३० ॥ वे सचमुच बाल आतप ही हैं। युद्ध के समय की उनकी वीरता दर्शनीय हैं । शत्रु यमन की सेना उनके आते ही छिन्न-भिन्न होकर भाग खड़ी होती है । देखिए
यमनस्य मटास्तावत् कान्दिशीका हतौजसः । बभूवुस्तपनोद्योते खद्योतद्योतनं कुतः ? ।। ४, १८० ।। श्रीमत्पार्श्वप्रतापोग्रतपनोद्योतविद्रुताः । यमनाद्यास्तमांसीव पलायांचक्रिरे द्रुतम् ॥ ४, १८१ ।। प्रसेनजिन्नृपार्क ये संनीयाऽस्थुर्भटाम्बुदाः ।
व्यलीयन्त क्षणात् पार्श्वप्रसादपवनेरिताः ॥ ४, १८२ ।। पार्श्वकुमार का विवाह राजा प्रसेनजित् की अत्यन्त रूपवान् पुत्री प्रभावती के साथ हुभा था । उन्होंने आसक्तिरहित होकर कुछ समय तक सुख भोगा था।
उसके पश्चात वनविहार के मनोरजनार्थ जब वे नन्दनवन के भवन में गये और उस भवन की दीवालों पर चित्रित नेमिचरित को उन्होंने देखा तब उन्हें दीक्षा ग्रहण करने की प्रेरणा मिली । उन्होंने विरक्तचित्त होकर साम्वत्सरिक दान आदि करना प्रारम्भ किया। वे अपने पूर्वभवों पर मनन करते हुए, सांसारिक सुखे की क्षणिकता पर विचार करते हए विरक्त हो गये । उनकी केशलुचन आदि विधि देवताओं ने की । उन्होंने तीन सौ राजाओं के साथ व्रत ग्रह्ण किया । लम्बी अवधि की तपश्चर्या के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त होने पर पार्श्व प्रभु ने अपने उपदेश में जिन तत्त्वों पर अपने विचार प्रकट किये, वे ये हैं :दो तत्व - जीव एनं अजीव, जीव के पांच भाव, आत्मा, भव, मोक्ष, बन्ध के हेतु, अजीव,
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