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________________ २१ काल, पञ्चास्तिकाय, पुद्गल, पुण्य-पाप, संवर, तप, निर्जरा, मोक्ष, सिद्धों के १५ प्रकार, चारित्र, मोक्ष, पुरुष, पुरुषार्थ, मार्ग व मार्गफल, समस्त लोकनाडी, संसारी जीवों की आगति-गतिउत्पत्ति च्यवन, शला कापुरुषों का चरित्र, कर्मों की वर्गणा, कर्मों की स्पर्द्धक आदिके द्वारा व्यवस्था, प्रतिसेवन, प्रकट या उदित कर्म, अप्रकट या अनुदित कर्म, कर्मफलभोग और कर्म से मुक्ति आदि... । कवि ने पार्श्व के राज्य भोगने आदि का वर्णन विस्तार से नहीं किया है । एकमात्र एक युद्ध में जाने की ही घटना को बताया है । पार्श्व तीर्थंकर के रूप में ही पैदा हुए अत: उनके जन्म से दीक्षा लेने तक की सभी घटनाएँ अलौकिक हैं तथा देवताओं द्वारा सम्पन्न की गई हैं । इन्द्र स्वयं इन्द्राणी के साथ पार्श्व की कई बार स्तुति करते हैं । इससे अधिक उनके चरित्र की महत्ता को दर्शाने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती । पार्श्व फिर भी मानव है । काव्य में उनके मानवीय गुणों का ही अधिकतर वर्णन किया गया है । गुरुजनों की आज्ञा को स्वीकार करना उनका गुण है जैसा कि उन्होंने राजा प्रसेनजित् के निवेदन करने पर उनकी पुत्री से विवाह की स्वीकृति प्रदान कर बताया। अपने पिता को युद्ध में जाते देख, अपने राजकुमार होने के फर्ज को ध्यान में रख पार्श्व पिता को युद्ध में जाने से रोकते हैं तथा स्वयं जाते हैं । यहाँ उनके कर्तव्यपरायणता रूपी गुण के दर्शन होते हैं । कमठ के कर्मकाण्ड से भरपूर पञ्चाग्नि तप को नगरवासियों की देखादेखी कौतुहलपूर्वक वे भी जाने की इच्छा को रोक नहीं पाते । यह उनका साधारण मानवीय गुण है । तथा अवधिज्ञान से लकड़ी के अन्दर उपस्थित सर्पयुगल को जान कमठ को लकड़ी चीरने से रोकना, उसे सच्चे जैन धर्म का उपदेश देना, सर्पयुगल को नमस्कार मंत्र सुना कर मुक्ति प्रदान करना आदि, युवा होने पर भी पार्श्व का धर्मतत्त्व में ज्ञानी होना उनके पूर्व जन्मों के संचय का परिणाम है एवं अलौकिक गुण है । नमिचरित के आलेखन को देखने के पश्चात् जब पार्श्व रोगमुक्त हो उठते है तब उनको राजा को प्राप्त वैषयिक सुख, माता-पिता, पत्नी, सम्बन्धीजन आदि किसी की भी माया आकर्षित नहीं कर पाती । यहाँ उनके त्याग, इन्द्रियसंयम, एवं कष्टसहिष्णुता आदि गुणों के दर्शन होते है । अन्त में, मेघमाली नामक असुर ( जो कमठ का जीव है ) के क्षमा माँगन पर, करुणाचित्त भगवान्, उसके जन्म जन्मान्तरों के सविघ्न उपसर्गों को विस्मृत कर और उसे माफ कर, कर्मबन्धों से मुक्ति प्रदान करते हैं । यहाँ उनके क्षमा, सहिष्णुता, परदुःखकातरता आदि गुण लक्षित होते हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति पर वे अपने उपदेश से देव, दानव उपकृत करते हैं और अन्त में योग्य ही हैं । निर्वाण Jain Education International और असुर तीनों को प्राप्त करते हैं । उनके ये सभी गुण तीर्थकर के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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