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सफल थे। शान्त और प्रसन्न इस राजा की कहीं पर भी जाति, सौन्दर्य, शक्ति और ऐश्वर्य के मद से जन्य उद्दण्डता बढती नहीं थी।
___ एक बार, उसने आकाशमार्ग से निकलते देवताओं के समुदाय को देख स्वामी जिनेश्वर का आगमन जान, जिनेश्वर की भक्तिपूर्वक वन्दना करने हेतु सेना के साथ प्रस्थान किया और जिनेश्वर के उपदेशों को ग्रहण कर, उनकी भक्तिपूर्वक स्तुति कर पुनः नगर को लौटा । दूसरे ही दिन कनकप्रभ धर्मदेशना को विशुद्ध चित्त से विचारता हुआ, भावना और जातिस्मरणज्ञान को प्राप्त कर, पूर्वभवों को देखकर विरक्त हो गया । पुत्र को राज्य सौंप उस राजा ने संसार के पदार्थों से विरक्त होकर जिन देव के पास जैन धर्म की प्रव्रज्या ग्रहण की ।
उस मुनि ने एकादश अंगों का अध्ययन किया । तीन रत्नों-ज्ञान, दर्शन और चारित्र को धारण किया एवं रागादि उपद्रवों को जीता । उसने बाह्य और आभ्यन्तर इन दो प्रकार के और इसके साथ ही बीस स्थानक तप भी किये । उसने अर्हतो की, सिद्धो की, चतुर्विध संघ की, स्थबिरों की, ज्ञानियों की और तपस्वियों की सेवाभक्ति की । वर दीन और विनय को प्रकट करनेवाला था। वह छः प्रकार के आवश्यक तथा निरतिचार शील और व्रत का पालन करता था । तीर्थत्व के सभी कारणों की भावना करते हर उसने तीनों लोक में क्षोभ करने वाले तीर्थकृतगोत्रकर्म को बाँध लिया ।
__ अत्यन्त उग्र तप करके, बहुत समय तक सद्भावनापूर्वक अन्तकाल में आमरणान्त उपवास करके वह मुनि प्रतेना ध्यान में स्थिा हो गया । वहीं सिंह योनि में उत्पन्न कमठ ने मुनि को देख कर, पूर्ववैर का स्मरण कर, उसे कण्ठ से पकड़ लिया । अन्त समय में विशुद्धलेश्या वाला वह मुनि मर कर प्राणत देवलोक में महाप्रभविमान में बीससागरोपम आयु वाला देव हुआ ।
कनक प्रभ की चारित्रिक विशेषताओं में किरणवेग व ब्रजनाभ के चरित्र से अधिक विकास दिखाई देता है ।
राजा के रूप में वह अत्यधिक सफल था । उसका राज्यकाल अत्यधिक शान्ति व समद्धि से भरपूर था । चक्रवर्तित्व को प्राप्त कर उसने सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन किया था। उसकी उत्तम नीति का वर्णन कवि ने इस प्रहार किया है :
स नातितीक्ष्णों न मृदुः प्रजासु कृतसम्पदः ।
निषेव्य मध्यमा वृत्तिं वशीचक्रे जगद् नृपः ।। २, २५ ।। धर्मदेशना प्राप्त कर, बैराग्य की उत्पत्ति के पश्चात् दीक्षा लेने से लेकर कठोर तप करने तक की सभी विधियाँ एवं प्रक्रियाएँ अन्तिम भव के श्री पार्श्वजिन की भक्ति आदि से मिलती जुलती हैं । श्रीपार्श्व के तीर्थ करजिन बनने का मार्ग शनैः शनैः सभी भवों में उत्तरोत्तर कर्मबन्धन से मुक्ति व धर्मलाभ के प्रति ज्यादा से ज्यादा प्रयत्न और प्राप्ति के.
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