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वर्षों तक राज्य का भी उपयोग किया और तब एक दिन वर्म का अत्रण कर, वह महो मना सुरगुरु नामक सूरि के पास विरक्त हो गया और उनसे दीक्षा ग्रहण की। शास्त्रों के एकादश अंगों को पड़कर वह अपने शरीर से भी नि:स्पृह हो गया। एक बार आकाशमार्ग से वह पुष्कर द्वीप में पहुँचा और वहाँ स्वर्णगिरि के पास प्रतिमायोग में आसीन हुआ। वहाँ कम जो विषधर के रूप में था, उसने उसे डस लिया । धर्मध्यान में लीन किरणवेग ने अपने प्राण त्यागे |
यहाँ किरणवेग नामक राजकुमार की सबसे प्रमुख विशेषता जो दिखलाई देती है वह है उसकी धर्म के प्रति अभिरुचि, आस्था और लगन । विषधर के डसने पर भी भी वह विचलित नहीं होता और धर्म में ही आरूढ़ अपने प्राण त्याग देता है। राज्य के बैषयिक सुख भी उसे मोहित नहीं करते और उन सुखों को त्याग वह वैराग्य धारण करता है।
वज्रनाभ (छठाँ भव) : शुभंकरा नगरी के राजा वज्रवीर्य और रानी लक्ष्मीमती के पुत्र का नाम वज्रनाम था सम्पूर्ण राजविद्याओं में निपुण होने के पश्चात् उसने राज्य ग्रहण किया। तत्पश्चात् अपने पुत्र विद्यायुध को राज्य सौंप कर क्षेमंकर जिन से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। वह मूलगुण और उत्तरगुण में संयम वाला, शास्त्रश विद्वान् पञ्च समितियों से समित और विशेषकर तीन गुप्तियों से गुप्त था। उम्र तपस्या करते हुए उसने सुकच्छविजय नामक स्थान में कायोत्सर्ग किया । वहाँ कमठ किरात के रूप में रहता था उसने मुनि को देख, अपशकुन समझ, पूर्ववैर का स्मरण कर, अपने बाण से बच कर उसे मार दिया। मुनि धर्म में बुद्धि लगा धन्य हो गया ।
धर्माद वज्रनाभ की चारित्रिक विशेषताएँ किरणवेग राजकुमार के समान ही हैं । धर्म में उसका प्रयत्न बढ़ता दृष्टिगोचर होता है ।
कनकप्रभ (आठवां भव) तत्पुराण नामक नगर के राजा बज्रबाहु और स्वरूपवान रानी सुदर्शना के पुत्र का नाम कनकप्रभ था शरीर से स्वर्ण की कान्ति वाला था । बास्यकाल व्यतीत होने पर उस राजकुमार ने सम्पूर्ण कलाओं को ग्रहण किया। उस राजकुमार के मुखकमल में सरस्वती का और हस्तकमल में लक्ष्मी का निवास था । वह बहत्तर कलाओं का ज्ञाता था, राजनीति के जानकारों में श्रेष्ठ था, उसने लक्षणग्रन्थों के साथ साथ अनेक साहित्यक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था राजकार्य में कुशल उसने राज्य के कार्यभार को सम्भाला | उसने चक्रवर्तिस्व को प्राप्त कर न्यायपूर्वक उसके शासन काल में प्रतिद्वंदी राजा लोग किसी सम्पूर्ण पृथ्वी का शासन किया । प्रकार की कहीं पर भी उदण्डता नहीं करते थे वह ना ज्यादा कठोर था, न ज्यादा । कोमल । वह था । मध्यममार्ग का अवलम्बन वढाने वाला प्रजा का आनंद करके उसने संपूर्ण संसार को अपने बस में कर लिया था । राजा के धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थो में परस्पर विरोध नहीं था । इंद्रियों वाले सन्मार्ग में प्रवृत्त उस राजा ने आन्तर - बाह्य दोनों प्रकार के शान्त कर दिया था जिस प्रकार वर्षा मिट्टी के कणों को शान्त कर उस राजा के सन्धि विग्रह, यान, आसन,
को वश में रखने शत्रुओं को इस प्रकार देती है । शत्रुनाशक द्वैधीभाव और आश्रय- वे परगुण अत्यन्त
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