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पुरुष पात्र :
पाश्र्व (नायक) : श्रीपाश्व प्रस्तुत महाकाव्य के नायक हैं। वे जैनों के तेइसवे तीर्थकर रूप में अवतरित होने से पूर्व वे अनेक भव व्यतीत कर चुके हैं किंतु यहाँ प्रमुख नौ भवों का वर्णन है, जब से उन्होंने सन्मार्ग पाकर तीर्थकर बनने की और प्रयाण किया । उनमें से चार भवों में वे विभिन्न स्वर्गो में देवता बनते हैं तथा एक भव (द्वितीय भव) में वे हाथी बनते हैं । इन भवों में उनके चरित्र का विकास नहीं हुआ है । शेष भवों में वे क्रमशः मरुभूति, किरणवेग, वज्रनाभ, कनकप्रेम व श्रीपाश्व जिन बनते हैं। इन सभी भवों का व्यक्तित्व यद्यपि भिन्न है तब भी उनमें एकसूत्रता पाई जाती है और इस प्रकार श्रीपाश्र्व के चरित्र का क्रमिक विकास दिखलाई देता है।
मरुभूति (प्रथम भव) : पोतनपुर नामक नगर के राजा अरविंद के राज में विश्वभूति नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र थे-बड़े का नाम कमठ व छोटा मरुभूति था । दोनों ही भाई षडंग वेद, श्रुति, स्मृति, आन्वीक्षिकी, मीमांसाशास्त्र, सांख्यतत्त्व, धर्मशास्त्र, पुराण, ब्रह्म विद्या, ब्रह्मकर्म में कशल, नीति शास्त्रों के ज्ञाता थे । वे दोनों ही राजा अरविंद के यहाँ मंत्री पद पर प्रस्थापित थे ।
मरुभूति बहुत ही नेक प्रकृति का था । यह दयालु था, विवेकी था तथा शंका उसे छ भी नहीं गई थी। उसके दिल में अपने बड़े भाई के प्रति करुणा थी । वह अपने अपराध के शमनार्थ अपने बड़े भाई से क्षमा मांगता है, आर अपने प्राण खो देता है। शिला की चोट से उसे जो पीड़ा होती है उसे बस में ना कर सकने के कारण, अंतिम समय शुद्धलेश्या से ना मरने पर उसे अपने अगले जन्म में हाथी बनना पड़ता है ।
मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा बहुत ही रूपवती थी। एक बार जब उसे ज्ञात होता है कि उसका बड़ा भाई उसकी पत्नी के साथ दुराचार कर रहा है तब उसको बड़ा दुख पहुचता है। पर फिर भी वह अपनी भाभी के कथन को भी सत्य मानने को तैयार प्रतीत नहीं होता तभी तो दूसरे देश जाकर, कार्ष टिक (भिक्षुक) का वेष धारण कर रात को. अपने भाई के घर आश्रय माँग, स्वयं अपनी आँखों से सम्पूर्ण वृत्तान्त देखता है और अपनी असह्य पीड़ा का कोई उपचार ना जान राजा से उस वृत्तान्त का निवेदन करता है।
राजा जब कमठ को उसके अपराध के कारण, अपमानित कर देश से निकाल देते हैं तब भी मरुभूति को पश्चात्ताप होता है। उससे शायद अपने भाई का अपमान सहन नहीं होता। अतः अपने मनोदुःख को भूल, वह क्षमा याचना के लिए कमठ के के पास जाता है और क्षमादान न मिलने पर अपने प्राणों को ही निछावर कर आता है । कमठ के हाथों उसकी मृत्यु होती है। - किरणवेग (चतुर्थ भव) : तिलक नामक नगर में विधुगति नामक विद्याधरों का
एक राजा था । उसकी पत्नी का नाम कनकतिलका था । किरणवेग उनका पुत्र था । '. युवा होने पर राजकुमार किरगवेग ने सभी प्रकार की कलाओं में दक्षता प्राप्त की। कई
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