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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित अन्योन्य विजिगीषुभिः विग्रहः क्रियते भटैः । परस्परोपघातेन . गजाश्वरथपत्तिभिः ॥११९।। स विग्रहो भवेन्नेतुर्यानं स्याद्यदरोन् प्रति । स्वसैन्येनैव तद्यानं प्राहुर्नीतिविशारदाः ॥१२०॥ स्ववृद्धौ शत्रुहानौ वा तुष्णींभावस्तदासनम् । अनन्यशरणस्यारेः संश्रयं त्वाश्रयं विदुः ॥१२१।। सन्धिविग्रहयोवृत्तिद्वैधीभावः प्रति द्विषम् । स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलान्यपि ॥१२२॥ सप्तप्रकृतयश्चैता राज्याङ्गानि प्रचक्षते । राज्यस्थितेरिति प्रोक्ता भूभुजां वृद्धिहेतवः ॥१२३॥ तेषु प्रधाना शक्तिः स्यादुपायबलवत्तरा । लभ्यतेऽम्भो हि खननान्मथनादनलो भुवि ॥१२४।। निरुद्योगमनुत्साहमप्रज्ञमविमर्शिनम् । अनुपायविदं भीरु त्यजन्ति पुरुषं श्रियः ॥१२५।। निरुद्योगं नरपति मत्वा सान्तसेनिकाः ।। महामात्राश्च पुत्राश्च तेऽपि तं जहति क्षणात् ॥१२॥ (११९-१२०) एक दूसरे को जीतने की इच्छा रखनेवाले दा ३ घर जा हाथी, अश्व, रथ व पैदल सेनाओं वाले वारपुरुषों द्वारा पारस्परिक हनन से विग्रह करते हैं । राजा का यह विग्रहगुण है । अपनी सेना के साथ ही दुश्मनों के प्रति जो प्रस्थान किया जाता है उसको नीतिविशारदों ने यानयुग कहा है । (१२१) अपनी उन्नति व शत्रुहान में चुप रहना ही आसन नामक राजनीति का चतुर्थ गुण है । अनन्य शरण वाले अर्थात् जिसका अन्य कोई रक्षक नहीं है ऐसे शत्रु को आसरा देना हो आश्रय कहलाता है। (१२२-१२३) शत्र के प्रति सन्धि-विग्रह की वृत्ति (एक आर सन्धि और दूसरी ओर लड़ाई को तैयारियाँ) द्वैधीभाव है । सजा, मान्त्र, मित्र, कोश, राष्ट्र, दुर्ग व सेना ये सात प्रकृतियाँ राज्य के अंग कालाती है। ये प्रकृतियाँ ही राज्य को स्थिरता के लिए हैं इना कारण उन्हें राजाओं के उन्नति के हेतु कहा गया है । (१२४) उनमें (अर्थात् बुद्धि, शक्ति, उपाय, गुण, जय और प्रकृति में ) शक्ति प्रधान है। वह उपायों से बलवती होती है । जगत में खोदने से जल तथा मन्थन करने से अग्नि प्राप्त की जाती है । (१२५) उद्यागहीन, उत्साहर हेत, अविचारशील व उपाय को नहीं जानने वाले डरपोक पुरुष को राज्यश्री छोड़ देती है। (१२६) योद्धा सैनिक भी निरुद्योगी समझकर छोड़ देते हैं, तथा महामात्र और पुत्र भी ऐसे राजा को तत्क्षण छोड़ देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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