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________________ ६ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य सन्धाय युवराजेन यदि वा मुख्यमन्त्रिणा । अन्तःप्रकापनं कार्यमभियोक्तुः स्थिरात्मनः ॥१११।। अन्नमोषै रिपोर्देशावस्कन्दप्लोषसूदनैः । स्वसैन्यस्यावमर्दैन दण्डः स्यादरिनिग्रहे ॥११२॥ तदुक्तम्नाशयेत् कर्षयेच्छत्रून् दुर्गाकण्ट कमर्दनैः । परदेशप्रदेशे च कुर्यादाटविकान् पुरान् ॥११३॥ दूषयेच्चास्य सततं यवसानोदकेन्धनम् । भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारान् परिखां तथा ॥११४॥ स्यादिन्द्रियाणामर्थेषु यदि धर्माऽविरोधिनी । प्रवृत्तिरन्तरङ्गारिनिग्रहस्तं जयं विदुः ॥११५॥ यदुक्तम्कामः क्रोधस्तथा मोहो हर्षो मानो मदस्तथा । षड्वर्गमुत्सृजेदेनमस्मिंस्त्यक्ते जयी नरः ॥११६॥ सन्धिश्च विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः । षड्गुणा भूभुजामेत ज श्रीप्रणयावहाः ॥११७॥ घोरे प्रवृत्ते समरे नृपयोहतसेन्ययोः । मैत्राभावस्तु सन्धिः स्यात् सावधश्च गतावधिः । ११८।। (१११) युवराज या मुख्यमन्त्री के साथ सन्धि करके स्थिरबुद्धिवाले शत्रु के अन्दर प्रकोप पैदा करना चाहिए । (११२) अपने सैन्य द्वारा शत्रु के अन्न की चोरी तथा शत्रु के प्रदेश में हल्ला (शोर), आग और नाश करवा कर (शत्रु को) कुचलना-यह शत्रु को दबाने के लिए दण्डन ति है । (११३) कहा भी हैं --जहाँ तक एक भी शत्रु रहे वहाँ तक दुर्गा का नाश करके शत्रुओं का विनाश करना चाहिए, पतन करना चाहिए, और दुश्मन के प्रदेश में, जङ्गला में नगरों को (छावनियों का) रचना करनी चाहिए । (११४) शत्रु के घास, अनाज के भण्डार, जल व इन्धन को सदैव दूषित करें, तथा तालाब; परकाटे तथा नगर को खाइयों को भी ताड़फोड दे । (११५) यदि इन्द्रियों की अपने विषयों में धर्माविरोधी प्रवृत्ति होती है तब अन्तरङ्ग शत्रुओं का जो निग्रह होता है उसे विद्वान् लोग जय कहते हैं । (११६) कहा भी है :काम, क्रोध, मोह, हर्ष, अनिमान व मद इस षट् वर्ग (ये छः अन्तःशत्रु है) को छोड दे। इनके छोडने पर पुरुष (यहाँ-राजा) विजयी होता है । (११७) विजयलक्ष्मी के प्रति प्रेम बढाने वाले राजाओं के ये छः गुण हैं-सन्धि, विग्रह, यान (प्रस्थान), आसन, द्वैधीभाव और आश्रय (११८) भयंकर युद्ध के शुरू हो जाने पर मरी हई सेना वाले दोनों राजाओं का मैत्रीभाव सन्धि है । यह सन्धि अवधिवाली या अवधिरहित होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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