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पद्मसुन्दरसूरिविरचित जय त्वं जगतामीश ! परमज्योतिरात्मभूः । जगद्धाला जगत्राता त्वमेव पुरुषोत्तमः ॥११२॥ जगद्गुरो ! नमस्तुभ्यं नमस्ते विश्वमूर्तये । अनन्तगुणपूर्णाय गुणातीताय ते नमः ॥११३॥ इत्यभिष्टुत्य देवेन्द्रश्चचाल प्रति मन्दरम् । वर्द्ध स्व जय नन्देति देवैर्निजगिरे गिरः ॥११४॥ ईशानेन्द्रः शूलपाणिरागाद् वृषभवाहनः । पुष्पकारूढ एवायं मेरौ समवातरत् ॥११५।। इत्थं वैमानिका इन्द्रा दशैव सपरिच्छदाः । सूर्याचन्द्रमसौ वन्यव्यन्तराणामधीश्वराः ॥११६॥ द्वात्रिंशदिशतिस्तत्र भावनानामधीश्वराः । स्वाङ्गरक्षकसामानिकर्द्धियुक्ताः समाययुः ॥११७।। अथोत्पेतुः सुरपथं सुरास्तु सुरचापताम् । तन्वानाः नैकधा रत्नभूषावर्णा शुसंकरैः ॥११८॥ जगुर्मङ्गलगीतानि जिनेशस्याप्सरोगणाः । अङ्गहारैर्विदधिरे नाट्यं रोचकनर्त्तनैः ॥१९॥ दिव्यं भगवतो रूपं विस्फारितदृशः सुराः ।।
विलोकयन्तः सफलां मेनिरे स्वानिमेषताम् ॥१२०॥ (११२) हे जगदोश्वर ! आप की जय हो ! आप जगत्धाता, जगत्त्राता, परमज्योतिर्मय, स्वयंभू तथा पुरुषोत्तम हैं । (११३) हे जगद्गुरु ! आपको नमस्कार हो, विश्वमूर्तिरूप आपको नमस्कार हो, गुणातीत और अनन्तगुणों से पूर्ण आपको नमस्कार हो। (११४) देवराज इन्द्र इस प्रकार स्तुति करके मन्दारपर्वत को चले गये । देवताओं ने 'जय हो', 'प्रसन्न रहो' 'खूब बढों' ऐसी वाणियाँ कहीं। (११५) वृषभवाहन शूलपाणि ईशानेन्द्र भी पुष्पक विमान में गैठकर सुमेरुपर्वत पर उतर पड़े । (११६-११७) इस प्रकार वैमानिक देवों के दस इन्द्र सपरिवार आये, सूर्यदेव और चन्द्रमा आये, व्यन्तरदेवों के इन्द्र आये, भवनपति देवों के छःसौ चालीस इन्द्र अपने अंगरक्षक सामानिक देवों की ऋद्धि के साथ आये । (११८) अपने रत्नालंकारों की रंगबिरंगी किरणों के संकर से मेघधनु को नाना प्रकार से रचना करते हुए देवता लोग आकाश में उड़े। (११९) अप्सराएँ जिन देव के मंगलगीत गाने लगी और अंगहार नर्तन के साथ नाटक करने लगीं। (१२०) भगवान् के दिव्य रूप को विस्फारित नेत्रों से देखने वाले देवों ने अपनी अनिमेषता को सफल माना ।
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