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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य सेन्द्राः सुराऽसुरा व्योम्नि स्वैर्विमानैः स्ववाहनैः । नाकान्तरमिवाऽऽतेनुः संपृक्ताश्छादिताम्बरैः ॥१०४। अवतीर्य क्रमात् सर्वे नभसः काशिपत्तनम् । प्रापुर्जयारवोन्मिश्रदुन्दुभिध्यानडम्बराः ॥१०५।। अरिष्टगृहमासाथ शची नत्वा जगत्प्रभुम् । जिनाम्बायाः स्तुतिं चक्रे शतक्रतुयुता ततः ।।१०६॥ सर्वगीर्वाणपूज्ये ! त्वं महादेवी महेश्वरी । रत्नगर्भाऽसि कल्याणि ! वामे ! जय यशस्विनि ! ।।१०७।। स्तुत्वेति तामथो मायानिद्रयाऽयोजयत् ततः । मायाशिशु पुरोधाय जिनमादाय सा ययौ ॥१०८।। मुख वीक्ष्य प्रभोद्दीप्तं परमां मुदमाप सा । अष्टमङ्गलहस्तास्तु देव्यस्तस्याः पुरो बभुः ।१०९। पञ्चरूपोऽभवच्छकः छत्रमेकेन चामरे । द्वाभ्यां पुरस्थेकेन वज्रमुल्लालयनभूत् ॥११॥ रूपेणान्येन शच्यङ्कात् स्वाङ्कपर्यङ्कगं जिनम् । विधाय विलुलोके तं प्रमोदविकसदृशा ॥११॥
(१०४) इन्द्र के साथ परस्पर संलग्न सुरों असुरों ने अपने विमानों से और वाहनों से आकाश को आच्छादित करके मानों दूसरे स्वर्ग का निर्माण कर दिया । (१८५) आकाश से क्रम से उतरकर वे सभी जयजयकार से मिश्रित दुन्दुभि की ध्वनि करते काशीनगर पहुँचे। (१०६) सतिकागृह में पहुँचकर इन्द्राणी ने जगत्प्रभु को नमस्कार करके, इन्द्रदेव के साथ जिनदेव की माताजी की स्तुति की । (१०७) हे वामादेवी ! हे यशस्विनि ! हे कल्याणि ! हे देवपूज्या !, तुम महादेवी हो, महेश्वरी हो, रत्नगर्भा हो, तुम्हारी जय हो । (१०८) उसको स्तुति करने के पश्चात. उसकी मायानिद्रा से युक्त किया और मायाशिशु को उसके आगे रखकर वह इन्द्राणी जिनदेव को लेकर चली गई । (:..९) कान्तियुक्त मुख को देखकर वह परम प्रसन्न हुई। हाथों में अष्टमंगल धारण किये हुए देवियाँ उसके सम्मुख शोभा पा रही थीं । (११०) देवराज इन्द्र पांच रूपवाला हो गया । एक रूप से छत्रों को, दो रूपों से चामर को तथा एक रूप से वज को ऊँचा उठाये हुए था। (१११) इन्द्र अन्य एक रूप से इन्द्राणी की गोद से अपनी गोद रूपी पलंग पर जिनदेव को स्थित करके प्रसन्नता से विकसित नेत्र से उसे देखने लगा।
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