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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य क्रमात्यापुः सुमेरोस्ते विपिने पाण्डुकाभिधे । अतिपाण्डुकम्बलाइवाम् शिलां कुन्देन्दुसुन्दराम् ॥१२१॥ योजनानां पञ्चशतं सा दीर्घा पृथुला पुनः । तदर्थं च चतुर्योजनोच्चाऽर्धेन्दुसमाकृतिः ।१२ २॥ पीठं धनुःपञ्चशतदीर्घ तद्दलविस्तरम् । धनुश्चतुष्टयेनोच्चं मङ्गलाष्टकसंयुतम् ॥१२३। निवेश्य प्राङ्मुखः शक्रः प्रभु स्वाङकगतं ततः । तत्राच्युतेन्द्रेण सुरा आज्ञप्ताः कलशान् व्यधुः ॥१२४॥ अष्टोत्तरसहनं ते कुम्भान् हेममयानथ । तथैव राजतान् स्वर्णरूपोत्थांश्च मणीमयान् ॥१२५॥ स्वर्णरत्नमयान् रूप्यरत्नाढ्यांस्त्रिविधानपि । मृण्मयानपि तानेवं भृङ्गारादींश्च निर्ममुः ॥१२६॥ युग्मम् ।। क्षीरोद-पुष्करोदादेर्जलं गङ्गादिसिन्धुतः । पद्महूदादेरब्जानि वैतादयादेस्तथौषधीः ॥१२७ । सर्वर्तुकानि पुष्पाणि भद्रशालवनादितः ।
गोशीर्षचन्दनादीनि गृहीत्वा ते समाययुः ।१२८॥ ( १२१) क्रमशः वे देवता सुमेरु के पाण्डुक नामक वन में, कुन्द और चन्द्र जैसी धबल अतिपाण्डुकम्बल मामक शिला के पास पहुँचे। (१२२) वह शिला पाँचसौ योजन लम्बी थी और चौड़ी थी उसका आधा भाग (दोसौ पचास योजन)। वह चार योजन ऊँची थी और अर्धचन्द्र की आकृतिवाली थी । (१२३-१२४) (उस भाग पर आयी हुई ) पाँचसों धनुषलम्बी, उस भाग जितनी विस्तृत, चार धनुष ऊँची, मंगलाष्टक से युक्त पीठ पर पूर्वाभिमुख इन्द्र ने अपनी गोद में रहे हुए प्रभु को रखा। बाद में अच्युतेन्द्र को
आज्ञा से देवों ने वहाँ कलशों का निर्माण किया। (१२५) (उन्होंने) एक हजार आठ स्वर्णमय कुम्भ तथा उसी प्रकार के चाँदी के तथा स्वर्ण में मणि जड़ित कुम्भ तैयार किये । (१२६) स्वर्णरत्नमय, रुप्यरत्नमय और मृण्मय ऐसे त्रिविध कलश तैयार करने के साथ झारी आदि भी बनाये। (१२७-१२८) क्षीरसागर, पुष्करोद आदि से तथा गंगा एवं सिन्धु आदि से जल और पद्मद आदि से कमल तथा वैताढ्यार्वत आदि से औषधियाँ व भदशालावन भादि से सभी ऋतुओं के पुष्प तथा गोशीर्षचन्दन आदि लेकर वे आये ।
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