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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
उपास्यमाना देवीभिर्देवीन्द्राणीव साऽऽलिभिः । अन्तर्वन सुखं तस्थौ विहाराहारसेवनैः ॥५७॥
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दत्तावधिः सुनासीरः समागात् तद्गृहं तदा । पितरौ च ववन्देऽथ त्रिःपरीत्याऽऽनतक्रमः ॥५८॥ सुरैः सह समारेभे ताण्डवं वाद्यनिःस्वनैः । कलगीतैरभिनयैः साङ्गहारैश्च मिश्रितम् ॥५९॥
शक्रस्तवेन तुष्टाव श्रीजिनं जिनमातरम् । स्तुत्वा च परया भक्तया स्वर्जगाम शतक्रतुः ||६० || गर्भोत्पत्तिदिनात् तत्र तिर्यग्जृम्भकनिर्जराः । व्यधुर्नित्यमविच्छिन्नां वसुधारां नृपौकसि ॥ ६१॥
दधति सा बभौ गर्भरत्नमाकरभूरिख । मातुर्बाधां स नाकार्षीदिवाग्निर्बिम्बतोऽम्बुनि ॥ ६२ ॥
नृपतिर्नातृपत् तस्या वदनं पद्मसौरभम् । आम्रायालिरिवोद्भिन्नं नलिनीनलिनोदरम् ॥६३॥
(५६) कोई (सखी) वस्त्रालंकार, आभूषण, भोजन आदि से उसका सत्कार करती थी । अन्य उसके ठहरने पर आसन दिया करनो थो। (५१) अनेक अपनो लखियों के द्वारा देवोओं से इन्द्राणी की भाँति सेवा की जाती हुई वह सगर्भा महारानी भ्रमण, भोजन आदि के सेवन से सुखपूर्वक स्थित थी । (५८) अवधिज्ञान से देवराज इन्द्र अग्रसर होकर उस राजा के घर आये और तीन परिक्रमा करके माता पिता को प्रणाम करने लगे। (५९) देवताओं के साथ उसने वाद्यध्वनि, मधुर गीतों, अभिनयों और आङ्गिक हावभाव से मिश्रित ताण्डव नृत्य शुरू किया । (६०) इद्र ने शकस्तव से जिनदेव और जिनमाता की स्तुति की। परमभक्ति से स्तुति करके इन्द्र स्वर्ग लोक का चला गया । (६१) गर्भ की उत्पत्ति के दिन से ही वहाँ तिर्यक् एवं जृम्भक देवता लोग नित्य अखण्डित द्रव्यराशि राजा के भवन में बिखेरने लगे । (६२) जिस प्रकार खान की भूमि रत्न को धारण करके शोभा को प्राप्त होती है, उसी प्रकार गर्भ को धारण करने पर वह ( रानी) शोभित थी । पानी में अग्नि का बिम्ब जिस प्रकार कोई नुकसान नहीं पहुँचता है उसी प्रकार उस (गर्भस्थ शिशु) ने माताको बाधा नहीं पहुँचाई । (६३) जिस प्रकार पर विकसित कमलिनी के मध्य को सूंघकर तृप्त नहीं होता है उसी प्रकार उस रानी के कमल के समान सुगन्धित मुख को सूंघकर राजा तृप्त नहीं होता था ।
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