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पन्नसुन्दरसूरिविरचित लक्ष्म्या लब्धाभिषेकं स देवेभ्यो मेरुमूर्द्धनि । पूर्णचन्द्राज्जनानन्दी भास्करादतिभास्वरः ॥४८॥ सिद्धिसौधध्वजारोपं कर्ताऽऽराधनया ध्वजात् । निधिवान् पूर्णकुम्भेन पद्मकासारदर्शनात् ॥४९॥ अष्टोत्सरसहस्रोच्चलक्षणैः सहितो भवेत् । क्षीरसागरतो लोकालोकदर्शी स केवली ॥५०॥ विमानात् स्वर्गतो जन्म रत्नराशेर्गुणाकरः । कर्मोघोदाहकृद् वनेर्भविता पुरुषोत्तमः ॥५१॥ इति तत्फलमाकर्ण्य भूपतिर्मुमुदेतराम् । कृतसत्कारसन्मानान् विससर्ज द्विजोत्तमान् ॥५२॥ तदुक्तं सर्वेमाचख्यौ पुरो देव्या यथातथम् । एवमस्त्विति सा तुष्टा तद्वाक्यं स्म प्रतीच्छति ॥५३॥ चक्रुर्वयस्याः शुश्रूषां काचित् ताम्बूलदायिनी । सज्जाऽऽसीन्मज्जने काऽपि काचित् तस्याः प्रसाधिका ॥५४॥ काचिदुक्तवती देव्यै 'मन्दं निगद सञ्चर' । तत्तल्पकल्पने काचिदपरा पादमर्दने ॥५५॥ काचिद्वमनसंस्कारभूषाभोज्यैरुपाचरत् ।
अन्या स्थितेषु प्रयता ददावासनमेकिका ॥५६।। (४८) लक्ष्मीदर्शन से देवताओं द्वारा वह मेरूपर्वत के शिखर पर अभिषेक प्राप्त करेगा और पूर्णचन्द्र के दर्शन से लोगों को आनन्द देने वाला होगा तथा सूर्यदर्शन से अतीव दीप्तिमान होगा। (४९-५०) ध्वजदर्शन से आराधना द्वारा सिद्धिरूप महालय के उपर ध्वज चढ़ाने वाला वह होगा और पूर्ण घट के दर्शन से द्रव्यशाली होगा; कमलपुष्पों वाले सरोवर के दर्शन से एक हजार आठ लक्षणों वाला होगा तथा क्षीरसागर के दर्शन से लोकालोक को देखने वाला वह केवलज्ञानो होगा। (५१) विमानदर्शन होने के कारण उसका स्वर्ग से जन्म%3B रत्नों के ढेर से गुणशाली; अग्निदर्शन से कर्म के समूह को मस्म करने वाला उत्तम पुरुष होगा । (५२) ऐसे स्वप्नफल को सुनकर राजा अतीव प्रसन्न हुआ। सम्मानपूर्वक सत्कार करके उसने श्रष्ठ ब्राह्मणों को विदा किया । (५३) ( राजा ने) पण्डितों की सारी बात अपनी महारानी को कही। 'ऐसा ही हो' । - ऐसा कहकर उस महारानी ने भी अपनी स्वीकृति दी। (५४) अनेक सखियाँ (रानी की) सेवा में लीन थी । कोई ताम्बूल देती थी, कोई स्नान कराने में उद्यत थी तथा कोई उसे अलंकृत करने में तल्लीन थी। (५५) कोई सखी देवी से 'धीरे बोलो व धीरे से चलो' ऐसा कहती, कोई शय्या तैयार करने में और अन्य कोई उसके पाँव दबाने में संलग्न रही ।
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