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काव्यमाला ।
संपत्तिकारणममङ्गलमूलकीलं
सेवन्ति के न भगवन्तमपं हरन्तम् ॥ १९ ॥ आयासभङ्गडमरामयसंपराय
चोरारिमारिविरहेण चिराय देव ।। भूमण्डले सुनगरानिगमा (?) विहार
चारेण ते परममुद्धवमामनन्ति ॥ २० ॥ निःसङ्ग निःसमर निःसम निःसहाय
निराग नीरमण नीरस नीररंस । हे वीर धीरिमनिवासनिरुद्धघोर
संसारचार जय जीवसमूहबन्धो ॥ २१ ॥ उल्लासितारतरलामलहारिहारा
नारीगणा बहुविलासरसालसा मे । संसारसंसरणसंभवमीनिमित्तं
चित्तं हरन्ति भण किं करवाणि देव ॥ २२ ॥ इच्छामहासलिलकामगुणालवालं
चिन्तादलं समलचित्तमहीसमुत्थम् । संभोगफुल्लमिव मोहतलं लसन्तं
हे वीरसिन्धुर समुद्धर मे समूलम् ॥ २३ ॥ संपन्नसिद्धिपुरसंगममङ्गलाय
मायोरुवारिरुहिणीवरकुञ्जराय । वीराय ते चरमकेवलपुंगवाय
कामं नमोऽसमदयादमसत्तमाय ॥ २४ ॥ हे देव किंकरमिमं परिभावयेह .. मज्जन्तमुद्धरजवे भवसिन्धुपूरे।। उत्तारणाय कुरु वीर करावलम्बं
भूयोऽसमञ्जसनिरन्तरचारिणो मे ॥ २५ ॥
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