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________________ ७४६ १ ४ Jain Education International 2010_05 ७ ३ ६ २ ५ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन महासर्वतोभद्र प्रतिमा २ ५ १ ४ ७ ३ ६ २ ५ १ ४ ན ७ لله ६ २ ५ १ ४ ७ لله ३ ३ ५ ६ ६ | ७ | १ | २ ६ २ ५ १ ४ ७ ३ ७ For Private & Personal Use Only ३ ६ २ ५ १ ४ सर्वार्थसिद्ध-- देखें, देव । सर्वोध लब्धि - तपस्या विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । वर्षा का बरसता हुआ व नदी का बहता हुआ पानी और पवन तपस्वी के शरीर से संस्पृष्ट होकर रोगनाशक व विष-संहारक हो जाते हैं । विष मिश्रित पदार्थ यदि उनके पात्र या मुंह आता है, तो वह भी निर्विष हो जाता है । उनकी वाणी की स्मृति भी महाविष के शमन की हेतु बनती है । उनके नख, केश, दाँत आदि शरीरज वस्तुएँ भी दिव्य औषधि का काम करती हैं । सहस्रपाक तेल - नाना औषधियों से भावित सहस्र बार पकाया गया अथवा जिसको पकाने में सहस्र स्वर्ण मुद्राओं का व्यय हुआ हो । सहस्र राकल्प — आठवाँ स्वर्ग । देखें, देव । सागरोपम (सागर) – पत्योपम की दस कोटि-कोटि से एक सागरोपम (सागर) होता है । देखें, पल्योपम । लण्ड : ३ सार्धामिक - समान धर्मी । सामानिक-सामानिक देव आयु आदि से इन्द्र के समान होते हैं । केवल इनमें इन्द्रत्व नहीं होता । इन्द्र के लिए सामानिक देव अमात्य, माता-पिता व गुरु आदि की तरह पूज्य होते हैं । सामायिक चारित्र -- सर्वथा सावद्य योगों की विरति । सावध - पाप-संहित। सिद्ध - कर्मों का निर्मल नाश कर जन्म-मरण से मुक्त होने वाली आत्मा । सिद्धि - सर्व कर्मों की क्षय से प्राप्त होने वाली अवस्था । सुषम - दुःषम --- अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा, जिसमें सुख के साथ कुछ दुःख भी होता है । www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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