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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
परिशिष्ट-१ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश
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सौधर्म और ईशान मेरुपर्वत से डेढ़ रज्जू ऊपर क्रमशः दक्षिण और उत्तर में समानान्तर हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र भी सौधर्म और ईशान के ऊर्ध्व भाग में समानान्तर हैं । ब्रह्म, लातंक, शुक्र और सहस्रार उनके ऊपर क्रमशः एक-एक हैं। आनत और प्राणत दोनों समानान्तर हैं । आरण व अच्युत भी उनके ऊपर समानान्तर हैं।
कल्पोपपन्न देवों का आयू-परिमाण इस प्रकार है: १. जघन्य एक पल्योपम व उत्कृष्ट दो सागरोपम, २. जघन्य साधिक एक पल्योपम व उत्कृष्ट साधिक दो सागर, ३. जघन्य दो सागर व उत्कृष्ट सात सागर, ४. जघन्य साधिक दो सागर व उत्कृष्ट साधिक सात सागर, ५. जघन्य सात सागर व उत्कृष्ट दस सागर, ६. जघन्य दस सागर व उत्कृष्ट चौदह सागर, ७. जघन्य चौदह सागर व उत्कृष्ट सतरह सागर, ८. जघन्य सतरह सागर व उत्कृष्ट अठारह सागर, ६. जघन्य अठारह सागर व उत्कृष्ट उन्नीस सागर, १० जघन्य उन्नीस सागर व उत्कृष्ट बीस सागर, ११. जघन्य बीस सागर व उत्कृष्ट इक्कीस सागर, १२. जघन्य इक्कीस सागर व उत्कृष्ट बाईस सागर ।
कल्पातीत का तात्पर्य है--जहां छोटे-बड़े का भेद-भाव नहीं है। सभी अहमिन्द्र हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं : १. अवेयक और २. अनुत्तर । आगमों के अनुसार लोक का पैर फैलाये स्थित मनुष्य की तरह है । ग्रेवेयक का स्थान ग्रीवा---गर्दन के पास है; अत: उन्हें अवेयक कहा जाता है। वे नौ हैं : १. भद्र, २. सुभद्र, ३. सुजात, ४. सौमनस, ५. प्रिय-दर्शन, ६. सुदर्शन, ७. अमोघ, ८. सुप्रतिबुद्ध और ६. यशोधर । इनके तीन त्रिक हैं; और प्रत्येक त्रिक में तीन स्वर्ग हैं। २. अनुत्तर–स्वर्ग के सब विमानों में ये श्रेष्ठ हैं; अत: इन्हें अनुत्तर कहा जाता है । इनकी संख्या पांच है : १. विजय, २. वैजयन्त, जयन्त, ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध । चार चारों दिशाओं में हैं और सर्वार्थसिद्ध उन सब के बीच में है।
१२ स्वर्ग कल्पोपपन्न के और १४ स्वर्ग कल्पातीत के हैं। इनकी कुल संख्या २६ है। सब में ही उत्तरोत्तर सात बातों की वृद्धि और चार बातों की हीनता है । सात बातें इस प्रकार हैं:
१. स्थिति-आयुष्य। २. प्रभाव-रुष्ट हो कर दु:ख देना, अमुग्रहशील हो कर सुख पहुँचाना अणिमामहिमा आदि सिद्धियाँ और बलपूर्वक दूसरों से काम करवाना—चारों ही प्रकार का यह प्रभाव उत्तरोत्तर अधिक है, किन्तु कषाय मन्दता के कारण वे उसका उपयोग नहीं करते हैं। ३. सुख-इन्द्रियों द्वारा इष्ट विषयों का अनुभव रूप सुख । ४. द्युति- शरीर और वस्त्राभूषणों की कान्ति । ५. लेल्या विशुद्धि-परिणामों की पवित्रता।
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